बाबा अम्बेडकर का संविधान एवम उसकी विशेषताये
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डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर जन्म: 14 अप्रैल, 1891 - मृत्यु: 6 दिसंबर, 1956
बाबा अम्बेडकर एक मात्र संविधान रचयिता नहीँ थे वह एक महान विचारक थे एक विश्व स्तर के विधिवेत्ता थे होने के साथ -साथ महान समाज सुधारक भी जिन्होने दलित समाज के उत्थान के लिये जीवनपर्यन्त प्रयासरत रहे । इसके साथ -साथ बाबा एक महान दूरदर्शी थे ।अपनी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों तथा देश की अमूल्य सेवा के फलस्वरूप डॉ. आम्बेडकर को 'आधुनिक युग का मनु' कहकर सम्मानित किया गया। बाबा साहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर : एक जीवन दर्शन
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए ।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना उनका मकसद नहीं, उनकी चाह थी कि यह सूरत बदलनी चाहिए ।।
11 दिसम्बर 1946 को डा राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष निर्वाचित हुये !13 दिसम्बर से 19दिसम्बर 1946 तक संविधान निर्माण के विभिन्न मसलो पर चर्चा होती रही ।विभिन्न पहलुओं के सम्बँद्ग मे 5 प्रमुख समितियों का गठन मेरठ के अधिवेसन मे पास किया गया ।29 agust 1947 को संविधान सभा ने डॉoभीमराव अम्बेडकर को प्रारूप समिति का अध्यक्ष का चुना ।समिति मे कन्हैंयालाल ,मौ सदुल्ला बी एस मीत्तर अल्लदी कृष्णा स्वामी अयंगर और डी पी खेतान अन्य सदस्य के रूप मे थे ।बाद मे दो सदस्यों के स्थान पर एन माधव राव और टी क्रिष्नामचरि की नियुक्ति की गयी।30 अगस्त 1947 को प्रारूप समिति की पहली बैठक से लेकर 141 दिन तक बैठकों का दौर चलता रहा ।डा अम्बेडकर के नेतृत्व मे फरवरी 1948 को प्रारूप संविधान तैयार करके संविधान सभा के समक्ष रखा गया ।इस पर तमाम लोगों के सुझाव और आलोचनाये प्राप्त हुयी ।
संविधान बनने से पूर्व एक सभा बनायी गयी जिसका नाम था संविधान -सभा । यह एक सामान्य प्रतिनिधित्व संस्था थी जिसने आरम्भ से ही अत्यंत उदात्त धरातल पर कार्य करना प्रारम्भ किया था । इसके कई कारण थे ।संविधान -सभा के सदस्य ने युग की चुनौती को समझा और उसका उत्तर देने का प्रयत्न किया । संविधान -सभा के सामने जो प्रश्न थे वे अपने आप में युगाँतरकारी थे । जिसके सही समाधान पर देश का समूचा भविष्य निर्भर था ।
सभा के गठन के अतिरिक्त यह बात ध्यान देने की है कि भारत के राष्ट्रीय नेता स्वयं ही सभी वर्गों और खासकर अल्पसंख्यक वर्गों के हितों की रक्षा करने के लिये अत्यंत उत्सुक थे । अल्प संख्यक वर्गों की आशंकाए दूर करने के लिये इससे अच्छा और क्या नमूना पेश किया जा सकता था? वस्तुतः डॉo अंबेडकर जिन्हें अध्यक्ष चुना गया वह जीवन भर कॉंग्रेस के कटु आलोचकों में रहे थे और यह सम्मान और उत्तरदायित्व सौंपे जाने पर उन्हें भारी आश्चर्य हुआ था । उन्होंने कहा था....
"मुझे ज़रा भी ख़याल नहीँ था कि मुझे अधिक उत्तरदायित्व पूर्ण काम सौंपे जायेंगे । अतः मुझे भारी आश्चर्य हुआ जब संविधान -सभा ने मुझे प्रारूप समिति का समिति का सदस्य निर्वाचित किया ।मेरे आश्चर्य की सीमा न रही जब प्रारूप -समिति ने मुझे अध्यक्ष चुना ।"
संविधान सभा ने दो वर्ष ,ग्यारह महीने और सत्रह दिन में अर्थात तीन वर्ष से भी कम समय में भारतीय संविधान के निर्माण का महान अनुष्ठान पूरा कर लिया । इस बीच कुल मिलाकर संविधान सभा के ग्यारह सत्र हुये और 165 बैठकें । प्रारूप - समिति की 141 दिन बैठकें संविधान के प्रारूप पर विचार करने में लगी । सँवारा गया ।
संविधान -सभा ने यह सब काम किस प्रकार पूरा किया वह स्वयंमेव एक शिक्षा प्रद, प्रेणनादायक और प्रभावशाली कहानी है । यह कॊई मामूली बात नहीं थी कि देश के विस्तृत क्षेत्र और वैविध्यपूर्ण तथा विशाल जनसँख्या के बाबजूद संविधान - सभा एक ऐसे संविधान का निर्माण करने में सफल हुई जो देश के एक छोर तक लागू हो ,तथा देश की कितनी ही प्राकृतिक ,आर्थिक ,संस्कृतिक और राजनीतिक विविधताओं के बीच एकता का स्वर्ण सूत्र ढूँढ निकालने और पुष्ट करने में सफल हो ।
डॉo अम्बेडकर ने 4 नवम्बर 1948 को प्रारूप संविधान सभा के विचार के लिये प्रस्तुत किया , इस अवसर पर डॉ अम्बेडकर ने प्रारूप संविधान की सामान्य आलोचनाओ का ,विशेष कर इस आलोचना का संविधान मौलिक नहीं था , उत्तरी दिया । उन्होंने कहा....
"प्रश्न यह है कि क्या संसार के इतिहास में इस समय निर्मित किसी संविधान में कॊई नवीनता हो भी सकती है ? संसार के पहले लिखित संविधान की रचना को डेढ़ सौ साल से अधिक का समय हो चुका है ।अनेक देशों में अपने संविधानो को लिखित रुप देने में इसका अनुकरण किया है । संविधान का क्षेत्र क्या होना चाहिये ,यह बात बहुत पहले तय हो चुकी है ।
इसी प्रकार , यह बात भी सारे संसार में मान ली गयी है कि संविधान के मूल तत्व क्या होते हैं ? आज बनाये गये किसी संविधान में यदि कॊई नयी चीज़ हो सकती है तो यही कि उसमें पुरानी संविधान की गलतियों को दूर कर दिया जाये और उसे देश की आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला जायें ।
यह आरोप कि हमारा संविधान दूसरे देशों के संविधानो का अंधानुकरण है संविधान के अपर्याप्त अध्ययन पर आधारित है । मुझे इस आरोप के बारे में कॊई क्षमा याचना नहीं करनी कि प्रारूप संविधान में भारतीय शासन अधिनियम सन 1935 के अधिकाँश उपबंधो को ज्यों का त्यों ले लिया गया है । उधार लेने में किसी तरह की साहित्यिक छोरी नहीं है ।संविधान के मूल सिद्धांतों के बारे में किसी का कॊई एकाधिकार नहीं होता"
* संविधान की विशेषताएँ *
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प्रत्येक सजीव और सबल संविधान कर पीछे एक दर्शन होता है , एक आत्मा होती है ,कुछ आस्थाएं ,आधारभूत मूल्य अथवा सिद्दांत होते हैं ।इन सबकी नींव पर ही राजनीतिक -समाजिक व्यवस्था का प्रासाद खड़ा किया जाता है और राज्य के विभिन्न अंशों का शरीर - गठन किया जाता है
भारत का संविधान समाजवाद ,पूंजीवाद या साम्यवाद जैसे किसी विशिष्ट सामाजिक ,आर्थिक अथवा राजनीतिक दर्शन का अनुयायी नहीं हैं ।
भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक गणराज्य है । इसका एक लिखित संविधान है । संविधान में 22 भाग, 395 अनुच्छेद और नौ अनूसूचियां थी । संशोधन की कठिन या सरल प्रक्रिया के आधार पर संविधानो को अनम्य अथवा नम्य कहा जा सकता है ।
राष्ट्रपतीय या संसदीय
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भारतीय संविधान सभा में इस प्रकार विस्तृत विचार विनिमय हुआ था कि भारतीय लोक तंत्र में किस प्रकार की शासन प्रणाली अपनाई जाये -राष्ट्रपतीय शासन प्रणाली या संसदीय शासन -प्रणाली । सर्वा भौम प्रभुता केवल जनता में निहित है -संसद के अधिकार संविधान निर्दिष्ट मात्र हैं । व्यवहारिक रुप से राष्ट्र पति हमारी शासन व्यवस्था में नाम मात्र प्रधान हैं । वास्तविक शक्ति मंत्रीमंडल व मंत्री परिषद में निहित है ।
संघीय अथवा एकात्मक
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संविधानो को संघीय तथा एकात्मक में भी विभाजित किया जाता है । अमरीकी संविधान पहली श्रेणी का और ब्रिटेन का संविधान दूसरी श्रेणी का एक उत्तम उदाहरण है ।एकात्मक संविधान में सभी शक्तियां केन्द्रीय सरकार में निहित होती हैं और इकाइयों के प्राधिकारी उसके अधीन होते हैं तथा केन्द्रीय सरकार के एजेंटों के रूप में कार्य करते हैं और केन्द्र द्वारा प्रयोजित प्राधिकार का प्रयोग करते हैं ।वास्तव में ,उत्तम श्रेणी के संघ में संघीय सरकार को केवल वही शक्तियां प्राप्त हैं जो उसे इकाइयों द्वारा समझौते में दी जाती हैं ।
सँसदीय प्रभुत्व बनाम न्यायिक सर्वोच्चता
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ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में संसद सर्वोच्च तथा प्रभुत्व संपन्न है । इसकी शक्तियों पर कम से कम सिद्दांत रुप में कॊई रोक नहीं है ,क्योंकि वहाँ पर कॊई लिखित संविधान नहीं है और न्यायपालिका को विधान का न्यायिक पुनरीक्षण करने का कॊई अधिकार नहीं है ।
भारत में संविधान ने मध्य मार्ग अपनाया है । चूँकि हमारा संविधान लिखित है तथा प्रत्येक अंग की शक्तियां तथा उसके कार्यों की संविधान द्वारा परिभाषा की गई है ।
वयस्क मताधिकार
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डॉ अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि संसदीय प्रणाली से हमारा आभिप्राय एक व्यक्ति ,एक वोट से है ।सभी वयस्कों को बिना भेद भाव यह अधिकार दिया गया ।
मूल अधिकार
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मोटे तौर पर संविधान के भाग -3में जो मूल अधिकार शामिल किये गये हैं ,वे राज्य के विरूद्द व्यक्ति के ऐसे अधिकार हैं ,जिनका अतिक्रमण नहीं हो सकता । मूल अधिकारों के प्रवर्तन का तंत्र तथा उसकी क्रिया विधि भी संविधान में निहित है ।
निदेशक तत्व
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हमारे संविधान की एक अनूठी विशेषता है...जो आयरलैंड के दृष्टांत से प्रेरित होकर निदेशक तत्व तैयार किये गये । हालाँकि कहा जाता है कि इन्हे न्यायालय लागू नहीं किया जा सकता है ,फ़िर भी इन सिद्धंतो से देश के शासन के लिये मार्गदर्शन की आशा की जाती है ।
मूल कर्तव्य
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संविधान के 42 वें संशोधन के द्वारा अन्य बातो के साथ - साथ "मूल कर्तव्य" शीर्षक के अन्तर्गत संविधान में एक नया भाग जोड़ा गया। इसमे भारत के सभी नागरिकों के लिये दस कर्तव्यों की एक संहिता निर्धारित की गई है । कॊई भी अधिकार तदनुरूप कर्तव्यों के बिना नहीं हो सकता तथा राज्य के प्रति नागरिकों के राजनीतिक दायित्वों के प्रति सम्मान के बिना नागरिकों के अधिकारों का कॊई अर्थ नहीं है ।इसलिये ,यह दुर्भाग्य की बात है कि नागरिकों के मूल कर्तव्यों की संहिता को हमने अभी तक वह महत्व नहीं दिया है जो इसे मिलना चाहिये ।
संघ और राज्य क्षेत्र
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संविधान के अनुच्छेद में निर्धारित किया गया है कि भारत अर्थात ,इंडिया राज्यों का संघ होगा ।राज्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों के नाम तथा प्रत्येक के अन्तर्गत आने वाले राज्यक्षेत्रों का वर्णन प्रथम अनुसूची में किया गया है । उस समय अनुसूची में 25 अब 29 राज्य तथा सात संघ राज्यक्षेत्र सम्मिलित हैं ।
नागरिकता
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संविधान निर्माताओं ने एक एकीकृत भरतीय बंधुत्व तथा एक अखंड राष्ट्र का निर्माण करने के अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुये ,संघीय संरचना होने के बावजूद केवल इकहरी नागरिकता का प्रावधान रखा । सभी नागरिकों के ,चाहे उनका जन्म किसी भी राज्य में हुआ हो बिना किसी भेदभाव के देश में एक से अधिकार तथा कर्तव्य हैं । भारत में अमरीका के विपरीत ,संघ तथा राज्य के लिये कॊई पृथक नागरिकता नहीं रखी ।
केन्द्रीय कार्यपालिका
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संघ की कार्यपालिका का प्रमुख राष्ट्र पति होता है ।वह एक विशेष नीर्वाचक गण द्वारा परोक्ष निर्वाचन की रीति से एकल संक्रमणीय मत द्वारा सानुपात प्रतिनिधित्व की पद्धति के अनुसार पाँच वर्ष के लिये चुना जाता है ।उसके नीर्वाचक गण में एक संसद में दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य और दूसरे राज्यों की की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं । भारत सरकार की समूची कार्यपालिका कार्य वाही उसके नाम से की जाती है । रक्षाबलो की सर्वोच्च कमान उसमें निहित होती है और उसका प्रयोग कानून द्वारा विनियमित होता है ।
केंद्रीय विधानपालिका व राज्य विधानपालिका
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संघ का विधान मंडल संसद कहलाता है इसके दो सदन होते हैं...राज्य सभा और लोक सभा इन दोनों सदनों और राष्ट्र पति से मिलकर संसद बनती है ।राज्य सभा संसद का उच्च सदन होता है ।राज्य का निम्न सदन विधान सभा है जिसके सदस्य सार्वभौम वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित होते हैं । दोनों सदनों के अध्यक्ष सदनों में शांति तथा अनुशासन बनाये रखता है और सभा के सदस्यों के विशेषाधिकार की रक्षा करता है ।
राज्य कार्यपालिका व न्याय पालिका
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भारत संघ के राज्यों का औपराचिक प्रधान राज्यपाल है ।वह राष्ट्रपति द्वारा पाँच वर्षों के लिये नियुक्त किया जाता है और उसके प्रसाद पर्यन्त अपने पद पर स्थिर रहता है ।सामान्य स्थितियों में राज्यपाल से अपेक्षा की जाती है कि वह राज्य की मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार आचरण करेगा लेकिन सांविधानिक गतिरोध के समय राज्यपाल की भूमिका निर्णायक हो सकती है और कुछ मामलो में उसका स्वविवेक से कार्य करना तथा राष्ट्रपति को सीधे भेजना महत्वपूर्ण हो सकता है ।
भारतीय संविधान में कार्याँग तथा विधनाँग की तरह संघ और राज्यों के लिये दुहरी न्यायपालिका की व्यवस्था नहीँ है । एक ही न्यायालय श्रंखला संघ तथा राज्यों के कानूनों का प्रशासन करती है । भारतीय न्याय व्यवस्था के शिखर पर उच्चतम न्यायलय है जो भारत के मुख्य न्यायधीश तथा कुछ अन्य न्यायधीशो से मिलकर बनता है । जन मन साधारण के मन में सांविधानिक अधिकारों तथा स्वाधीनता के प्रहरी के रुप में उसके प्रति अटूट श्रद्धा और सम्मान है ।
डॉo अम्बेडकर के संविधान की मुख्य विषेशता विदेशी संविधान का अनुकरण मात्र न होकर अपने में एक अनुपम और नव प्रयोग की गुंजाइश है । इसमे अद्भुत शक्ति है । भारतीय सांविधानिक व्यवस्था एक समझौते और सामंजस्य की व्यवस्था है । शशि पाण्डेय ।