10/09/2016

हम अब भी न बदले (लेख )

जब भी पब्लिक प्लेस में महिलाएँ कुछ मौर्ड्न कपड़े पहने दिखती उनसे ज्यादा उन्हें निहारते लोग दिखते हैं  ।ऐसे लोग भी देखते हुये दिखते हैं  जो खुद को मौर्ड्न की श्रेणी में रखते हैं । कुछ तो मन ही मन मर्यादा और संस्कारो की दुहाई भी दे डालते हैं । यूँ तो कहने को हम आधुनिक हो चले हैं लेकिन सिर्फ़ ऊपर से । हमारी आधुनिकता मेट्रो, मॉल और सुविधाओं तक ही हो पाई है । यह आधुनिकता का कोरा लबादा है । ऐसी मानसिकता समाज के लिये अभिशाप से कम नहीँ । पुरुष प्रधान समाज में आखिर यह असुरक्षित परिवेश पता नहीँ कब तक !

लेकिन एक अच्छी बात कि महिलाएँ खुद को बदल रही हैं । एक जैसी धारणा की बेडियो को तोड़ स्वतंत्र हो आगे बढ़ रही हैं । किसी भी समाज की पहचान इस बात से होती है कि उसमें महिलाओ का स्थान क्या है। आंकड़े बताते हैं कि अपने देश में महिलाओ की स्थिति अच्छी नहीँ । ये आंकड़े भी हम न देखे तो भी अपने आस -पास  होने वाले अपराधों से सच्चाई सामने दिखती है । यह शर्मनाक है ।कितने ही कानून बना दिये जायें जब तक लोगों की सोच नहीँ बदलेगी कुछ नहीँ बदलेगा । आधुनिक रहन -सहन से नहीँ  मन -मस्तिष्क से बनना होगा ।

कुछ लोगों को कहते हुये सुनती हूँ क्या महिलाओ को आज़ादी कपड़ों की चाहिये...क्या समानता और बराबरी कम कपड़े पहनने से आती है । जिस सामाजिक प्राणी को कहीं जाने -आने , अपने कपङे क्या पहने क्या नहीँ का और तो और अपने मन की सोचने तक अधिकार नहीँ उसके लिये समाज में समानता जैसी बातें बेमानी हैं । समाज में मर्यादायें सबके लिये एक जैसी हों । मर्यादा सिर्फ़ महिलाओ के लिखा गया ऋग्वेद नहीँ । सभी जानते हैं रात में पुरुष बड़े आराम से मन से घूमता है या आ जा सकता है लेकिन क्या महिलाएँ रात को निकल सकती हैं ,और निकल कर सुरक्षित वापस आ घर वापसी कितने प्रतिशत होने की सम्भावना होती है ये कॊई नहीँ बता सकता ।

एक बार एक लड़के -लड़कियों का ग्रुप पिकनिक पर गया । मौज - मस्ती  हों रही थी । तभी उन्हें तालाब दिखा जितने लड़के थे कपड़े उतारे और तालाब में छलाँग लगा स्वीमिंग के मजे लेने लगे वही साथ में गयी लड़कियाँ ऐसा नहीँ कर सकी क्योंकि वो लड़कियाँ थी उनके सामने उनके कपड़े, उनका शरीर और उनके लिये सिर्फ़ उनके लिये ही पुरुषों  या पुरुष प्रधान समाज द्वारा बनायी गई मर्यादा और संस्कार  आडे आ रहे थे । सबसे अपील है सोच बदलो देश बदलेगा ।

समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़ी स्त्री का अकेला संघर्ष और उस संघर्ष में समाज द्वारा अपनाए विरोधात्मक तेवरों का अंकन करता यह मात्र  बड़बोलापन नहीं है । सामाजिक संरचनाओं में भीतर तक पैठी पितृसत्ता के खिलाफ खडी हो गई औरतों का इंकलाब इस समाज  में यथार्थ रूप में है । कोरी आदर्शात्मक नाटकीय लगता है ।यह जरूरी है कि स्त्री अपना यह स्वतंत्र व्यक्तित्व कायम रखे और इसी ढंग से अपने रिश्ते, अपने रास्ते, अपने कपड़े तय करे और अपना मक़ाम बनाये । लेकिन इससे इतर महिलाओं को सतर्क रहना होगा कि आधुनिकता के नाम पर वो खुद दरक कर न रह जायें ।

नारी को असुरक्षा ख़त्म कर बराबरी के लिये पहली लड़ाई घर में लड़नी होगी । घर का वातावरण ऐसा मर्यादित बनाएँ कि पुरुष को हर समय अदब से रहने को मजबूर होना पड़े। महिलाओ को हर वह सम्भव प्रयास करने होंगे जिससे वह आधुनिकता के सही मायनों को जीवन में सर्गर्भित कर पाये ।

जब से बाजारवाद आया तो उसने स्त्री को एक वस्तु बना कर पेश किया. देह की मुक्ति का नारा लगाया। इस आकस्मिक बदलाव को भारतीय पुरुष पचा नही पा रहा और स्त्री की इस खुलेपन पर उसे एक खीज और कुंठा पैदा हो रही है ।अपनी इस चिढ़ को उसने स्त्री पर घिनौने अपराध कर निकाल रहा है ।क्योंकि पुरुष की मानसिकता बदलने की कोई पूर्व तैयारी हमारे समाज में नही की गयी है और न तो उसकी परवरिश के माध्यम से महिलाओ के लिये सोच बदलने जैसा कुछ नहीँ सिखाया जा रहा और न ही उसकी शिक्षा-दीक्षा में लेकिन सामाजिक कलेवर बदल रहा है । आज भी ये दोनो विपरीत परिस्थितियाँ एक-दूसरे के साथ सामंजस्य नही बिठा पा रही हैं ।

यह समाज में महिलाओं के वर्चस्व की लड़ाई है खुद महिलाओ को समझना होगा वह किस तरह इस पथ पर आगे बढे लेकिन अपने अस्तित्व कि तिलांजलि देकर नहीँ । आधुनिक महिला आधुनिकता का बाजारवाद बनने से बचना होगा । महिलायें नकारात्मक प्रभाव और पुरुषों के दुर्गणों और कमियों से बचकर अपना आसमान अख्तियार कर ही लेंगी ।यह धारणा नारीत्व के लिये मील का पत्थर साबित होगा । शशि पाण्डेय ।

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