5/31/2016

एक कहानी

एक छोटे  से गाँव से गुजरना हुआ वहाँ देखा  कच्चा "बरोठ " ( बरामदा ) काफ़ी भीड़ लगी हुई थी ।मै उत्सुकता वश गाड़ी से उतर कर वहाँ जा पहुँची.....वहाँ जाकर देखते ही अपने देश के आज़ाद होने व अब तक के सरकारी तंत्र पर बेहद गर्व का अनुभव हुआ ।

वहाँ का नजारा कुछ यों था....दो तखत पड़े हुये थे अंदर एक कोने पर एक कुर्सी और मेज़ पर एक इंसान बैठा हुआ था जो की लोगों की भीड़ से घिरा हुआ था शायद वह उन गाँव वालों का डॉक्टर था ।

भीड़ इतनी कि मुझे झाँक कर देखना पड़ा कि कुर्सी पर  कौन है। कुछ लोग ज़मीन पर बैठे कराह रहे थे तो कुछ परेशान हो अपनी बारी का इंतजार तो कुछ दो तख्तो पर 10 से 12 लोग आड़ी -टेढे हो आधे धूप और आधे छाँव मॆ लटके पड़े थे। शायद उन्हे शहर वासियो की तरह सुख -सुविधा नही सिर्फ इलाज चाहिये।

यहाँ उनके शरीर मॆ पानी की कमी को डॉक्टर अपनी  कमाई के जरिये बराबर  कर  रहा था । लोग अन्धों मॆ काने राजा या यों कह लीजिये "मरता क्या न करता  " वाले हाल मॆ इलाज करा रहे  थे या कराने को मज़बूर थे...शायद ये "डाकटर साहेब" ही इनके लिये किसी बड़े चिकित्सक से नही...!!   ये मेरे अपने बुंदेलखंड के छोटे से गाँव की बड़ी सी बात !! शशि पाण्डेय ।

5/30/2016

माँ (कविता )

माँ जिंदगी की प्यासा  है
सारे सपनों की आस है
माँ बच्चों का दर्पण है
उसके चरणों मॆ पूरा जीवन अर्पण है
माँ साँस है
मेरे मन का विश्वास है
माँ बड़ा न दुनियाँ मॆ न कोई
एक माँ हि है जो मेरे लिये रोई ॥शशि पाण्डेय

5/28/2016

गोरिया ठाड ( गीत )

गोरिया ठाड दरवाजवा हो निहारे रास्ता
कबहूं लौटेंगे पिया हो लै के बस्ता 2
गोरिया.....

पहली दीवारी मोरी पिया बिन सूनी
कबहूं आयेंगे पिया लईके लडुआ
गोरिया..

आय गई होली संवर रही गोरिया
कबहु तो आयेंगे पिया लईके रँगवा
गोरिया...

मन रही दशमी ,गोरिया बनाय रही बिरिया 
कबहूं तो आयेंगे पिय लईके पनवा
गोरिया...

आय गये संइया लजाय गइ गोरिया
अब न जईबे गोरी तुमका छोड़ लईके बस्ता
गोरिया..

हम न बोलाईबे चाहे जाओ जहाँ सईया
हम तो दरवज्जे पे ठाढे बुलावे पुरान रसिया
गोरिया.....

5/27/2016

रेल टिकट (कविता )

एक दिन कै बताई बात
दिल्ली जान कै खातिर
हमने कराई टिकट
आरक्षण कै खिड़की पै
स्थिति बहुतै रही  विकट ।।

रही बहुतै गुत्थम -गुत्थ
हमहू झेल -पेल कै लै आये टिकट
दुसरे दिन कै रही
हमारी रेल
रेल मा रही बहूत झेलम-झेल ॥

हमरी सीट मा कौनो और
बइठा देख हमरा
माथा होइगा फेल ॥

हम ऊन्है देखाई,ऊँ हमै देखावै
आपन - आपन टिकट
मामला कुच्छौ समझ
कौनो कै न आवै
हमका कौनो बात
मन का न भावै॥

एतने मा देखाई
परा करिया कोट
हम सब छोड़ भागे
पीछे जैसे माँगै  वोट
हमको समझाये करिया कोट
नही भागौ माँगै जैसे वोट ॥

रेल वहै ,सीटव  वहै
चढेव गलत तरीख मा
यहै तुम्हार खोट
हम भागा उतरे उल्टे पांव
लिहेनिस रेल जहाँ ठहराव
कह रहॆ चचा
न किँहेव अब हड्बडियाय कै काम 
नहीँ तौ देने पडैनंगे हम सबको उल्टे दाम !!शशी पाण्डेय ।

तुम ही तो हो मेरे प्रिय !( कविता )

हर पल ,पल -पल मुझे तुमने चाहा
हर क्षण हर दुआ मे मुझको माँगा
हर खुशी मुझे देना चाहा जो मैने सोचा
कोई बात मुझे दुखी करे दूर तुमने किया
हसरतों को मेरी मुझसे ज्यादा तुमने किया पूरा
कहते  हैं.....लोग.....
प्यार,दुलार ,लाड़ कर तुमने मुझे बिगाडा
उम्मीदों से आगे बढ़ तुमने साथ निभाया
हर सम्भव वो चीज़ जिसपे मैने हाथ धरा
वो  तुमने  मुझे  दिलाया
चाहूं मै ये मुझे पर रहॆ तुम्हारी माया
कितना चाहूं तुम्हे मै और मुझे तुम
क्योंकि तुम ही तो हो दुनियाँ मॆ
मेरे सबसे प्रिय "पापा "

संयोग (कहानी )

मालती की खुशी का ठिकाना ना था शादी हो नयी  बहू घर जो आयी थी....मालती का सोचना था मै अपनी बहू  को...बहू नहीँ बेटी बना कर रखूगी...तो नेहा भी सास भी को सास न मान...माँ मान कर ससुराल आयी थी।

पर  किस्मत को कुछ और ही मंजूर था... कुछ दिन बीते  नेहा नवदम्पति खुश थे। फ़िर एक दिन जाने किस बात पर...माँ सरीखे मालती और बेटी सरीखे नेहा के किसी बात  को लेकर कहा सुनी हो गई ।

नेहा ने पति मनोज को शिकायती लहजे मे पूरी बात बतायी मनोज ने अनसुना कर दिया...नेहा अपने गुस्से पर काबू ना कर सकी और बीती रात ज़हर खाकर जान दे दी । घर मे सुबह कहर सा टूट पड़ा ।बात पुलिस तक पहुँची...पुलिस घर आयी तब तक घर के सभी सदस्य नेहा के शव का अंतिम संस्कार करने की तैयारी कर रहे थे । पर मनोज सदमें मे शून्य हो बैठा रहा उसको किसी ने झकझोर कर पुलिस के आने की सूचना दी वह भागा और भाग कर ट्रेन की पटरियो मे अपने प्राण नीर दिये ।

पूरा गाँव - मुहल्ला आचम्भित है...घर के बचे सदस्यों पर दहेज का केस लगा पुलिस ने जेल मे डाल दिया है । मालती सलाखों के पीछे बहू -बेटे की मौत से स्त्म्भीत सोच रही है....क्या कोई बेटी ज़रा सी बात पर जान दे सकती है....ये कैसी बेटी थी जो ऐसा संयोग लायी!!

5/26/2016

प्यार था या कुछ और !!( कहानी )

उर्वशी को मालूम ना था उसको उसके प्यार के लिये क्या कीमत चुकानी होगी.....अब यह भी सोचने को मजबूर है कि उसका प्यार...प्यार था भी या नही !!
वरना कोई ऐसे अकेले उसे यूँ छोड़ कर ना जाता ।
उर्वशी को अपने पुराने दिन बरबस याद आ रहें हैं वो मयंक से किस कदर सम्वेदनाओ से बँधी प्यार मे डूबी थी...हर पल उसके ही ख्यालों मे डूबती - उतराती... मन ही मन उसको अपना सब कुछ मान बैठी थी ।
   
                 एक दूसरे को दूर से निहारने मे भी इतना  सुकून मिल जाता कि सारे अरमां पूरे हो जाते ।दिन बीते...महीने और फ़िर साल.....कुछ सालो तक सिलसिला यूँ ही चलता रहा....!

अब उर्वशी कि शादी होने वाली पर मयंक से नही किसी और से। उर्वशी ने लाख कोशिश कि शादी मयंक से हो पर  हो न पायी। फ़िर क्या था एक दिन उर्वशी की शादी किसी नीरज से हो जाती है ।

शादी के कुछ दिन तक उर्वशी और मयंक दोनो लगभग एक दूसरे को भूल चुके थे....उर्वशी का कुछ दिनों पहले मायके आना हुआ मयंक भी संयोग से शहर से आया हुआ था । दोनो का फ़िर र्क बार आमना -सामना हुआ...दोनो का सोया हुआ प्यार पुनः हिलोरें मार उठा । उर्वशी वापस ससुराल जा चुकी है पर जाते -जाते मयंक को अपनी ससुराल का पता दे जाती है ।

मयंक अब मौके तलाश कर जब भी उर्वशी का पति नीरज घर मे न होता...वह अपने प्यार उर्वशी से  मिलता रहता। मयंक जब भी जाता महँगे से महँगे तोहफ़े उर्वशी को दें कर आता,इन्ही महँगे तोहफो मे से एक तोहफा और लेटर नीरज के हाँथ लग गया ।नीरज बहूत ही समझदार और सूझबूझ वाला व्यक्ति था उसने उर्वशी को बैठा कर प्यार से समझाया कि देखो जो हो चुका उसे भूल जाओ आगे हम डोनर को ही साथ रहना और चलना पड़ेगा....उर्वशी ने वक़्त की नजाकत देखी और नीरज के सामने अपनी गलती स्वीकार कर मयंक से डोर रहने की हाँ कर दी ।

वक़्त बीता बात आयी -गयी हो गया पर उर्वशी उर मयंक का प्यार परवान चढ़ता रहा । इस बीच उर्वशी के पाँव भारी हो गये नीरज और घर वाले काफ़ी खुशी थे । पर तकदीर को कुछ और ही मंजूर था मयंक हमेशा उर्वशी को बोलता था तो नीरज को तलाक दे दे या बिना किसी को बताये उसके साथ दूर कही भाग चले ...एक दिन नीरज ने उर्वशी और मयंक को साथ - साथ देखा लिया....नीरज ये सब देख आगबबूला हो गया उसकी सूझबूझ भी उसको सम्भाल ना पायी...उसने खुद को गुस्से मे आग लगा ली।

घर मोहल्ला सभी लोग आवाज़ सुन नीरज को जैसे -तैसे बचा कर अस्पताल पहुँचाया..पर डॉक्टर्स का कहना की नीरज बहुत ज्यादा जल चुका है उसे बचा पाना बेहद ही मुश्किल है ,खैर इलाज जाड़ी है नीरज के विकलांग बाप और बूढी माँ का रो -रो बुरा हाल है।लाख कोशिशों के बाबजूद अपने माँ -बाप की इकलौते संतान नीरज का मौत हो जाती है ।

नीरज के तेरहवीं क्रिया क्रम के बाद उर्वशी का मायके आना होता है ।लोग दबी जुबान मे तरह -तरह की बाते बना रहें हैं । उर्वशी को प्रसव पीडा का अहसास होता है घर वाले अस्पताल ले कर जाते है उर्वशी को सुंदर सी बेटी हुइ है पर वो पैदा होते ही बिन बाप की है..घर वाले व उर्वशी सदमें मे हैं खुशी मनाये भी तो कैसे...!!

5/25/2016

हो गई स्वच्छता (व्यंग्य कविता )

हो गई स्वच्छता अभियान की
क ख ग घ इयां
खैनी ,पान खा - खा कर 
पीक मार रहे भइया 
तो जहाँ -तहाँ कुल्ला कर 
भउजी स्वच्छता की 
मचा रही ता ता थाइया 
बड़ा भारी संकट है प्रभु 
कैसे  कटे  यात्रियों 
की नइया !! जय हो जागरूक नागरिकों की।

मेरी खुशियाँ (कविता )

चलो ना लपक-झटक लाये खुशियाँ
मीज कर अपनी अंखियॊं
कोई ख्वाब पुराना रह ना जाये 
कोई शाम सुहानी फ़िर आये 
चलो न खेले फ़िर गुड्डे-गुड़िया
करे न फ़िर मीठी-मीठी बतिया
घरो से अपने खाना लेकर 
आना बोलती थी तब सखियाँ
होती ऐसे गुड्डे -गुड़िया की शादी
रोटी ही होती थी लड्डू और भजिया
दूर देश से बाबुल की आती थी पतियाँ
दिन-रात सूने याद बहुत आती है बिटिया
इंद्रधनुष सी होती थी बाते
खुशी बिखरती थी कलियाँ-कलियाँ
अम्मा कहतीं थोड़ा ठहर कर चल ,
धीरे बोल ,धीरे हँस नही तो क्या कहेगी दुनिया
दुनिया का ही डर दिखाया
मेरा मन कोई समझ न पाया
समझ रखा है माचिस की डिबिया
उड़ने दो न खुले गगन मे
लूट लाने दो खुशियाँ
रहने दो इंसान मुझे
नही बनाओ तुम बिटिया-विटिया
चलो सखी देखें दुनिया
चलो ना लपक-झटक लाये खुशियाँ ।शशि पाण्डेय ।

5/18/2016

सफर मॆ प्रकृति (कविता )

दूर -दूर तक जाती नज़रें 
कहती हवा से 
आओ बाते करें 
बिखरी जमीं पर बिखरा 
आसमान 
हर पल मिलते से
आते  नज़र
पास और दूर खड़े पेड़ 
कोई गोलाकार ,
कोई लम्बा 
यूं लगता है जैसे 
किसी ने हाँथो से 
हो इन्हे  तराशा
उस पर इन पेड़ों 
पर मचलती हवा 
सर -सर इनसे 
बहती ,सरकती हवा 
ये है प्रकृति पर मेरी खबरें 
दूर -दूर तक जाती नज़रें ॥ शशि पाण्डेय ।

5/15/2016

आम आदमी से लेखक तक

एक आम इंसान समाज और परिवेश मे होने वाली घटनाओं से प्रभावित हो कर ,उसके मन मे जो विचार आते  हैं लिख बैठता है, और उसका लिखा लोगो को पसंद आता है या अच्छा लगता है ।

उसका मनोबल बढ़ने लगता है । अव वह समाज से  प्रभावित हो या  विचलित हो कर ही नहीँ बल्कि लोगो के पसन्द किये जाने के लिये भी लिखता है ।

इस बीच उसके लेख को कुछ पेपर, पत्रिका मे छापने हेतु आमंत्रण मिलता है । वह यह आमंत्रण स्वीकार कर रचनायें भेज देता है। वह ससम्मान छप जाता है । छपने  के बाद उसका मनोबल और बढ़ता है । फ़िर लोगो द्वारा सराहा जाता है । अब यह क्रम चल पड़ता है ।

अब उसे लिखने से ज्यादा छपने मे और चर्चा मे रहना अच्छा लगने लगा है । वह अब लिखने के लिये नही  छपने और नाम के लिये लिख रहा है ।

लिखने के पूर्व वह सिर्फ़ इतना जानता /जानती है कि उसके द्वारा जो लिखा जा रहा है वह "गद्द्य"है  या "पद्द्य" है  अगर वह हिन्दी साहित्य से नही जुड़ा तो। इसके बाद उसे पता चलता कि वह जो लिख रहा वह किस  विधा विशेष से सम्बन्धित है ।

वह खूब लिख रहा है ,खूब छप रहा है ,खूब नाम उगाह रहा है । शायद यही "छ्पास रोग " है !! जो  कि  उसको नही पता । ये "दौर ए लिखावट" चलते -चलते वह गोष्ठियों और सम्मेलनों का हिस्सा बनता है । इन बैठकों मे वह खुले दिल से सराहा जाता है तो वही वह  "कानाफूसियो" मे लताडा भी  जाता है ( कि साला हमसे अच्छा और हमसे आगे कैसे ) ।

अब उसको किताब छ्पास नामक रोग भी लगता है। इन दौर मे इतने सम्पर्क बन जाते हैं कि उसकी किताब आसानी से छप जाती है। जोर -शोर से किताब का विमोचन होता है। अब किताब -छपास व  विमोचन का सिलसिला चल पड़ता है।

इस बीच वह किसी अपने से बड़े नामी लेखक को अपना गुरु भी बना लेता है.....सांठगांठ से  खूब सबकी मस्का बाजी भी करता है । कोशिश करता है दौड़ मे आगे निकलने की ।

अब वह मझा हुआ लेखक कहलाने लगा है। लोग उसके साथ खड़े हो फोटो खिंचाना चाहते हैं । इतना होते -होते अब उसको कई सम्मान भी मिलता है । अब कुछ ऐसा ऊलजलूल लिखता है जो सही न होते हुये सही कहलाता है और इस पर उसका खूब नाम और चर्चा होती है ।

पर अभी एक समस्या है उसको पुरस्कार नही मिले हैं । पुरस्कारों को लेकर वह खींच तान करता रहता है ।उसको क्यों मिला ? मुझे क्यों नही मिला ? मै तो अच्छा लिखता हूँ ज्यादा छपा हूँ...आदि -आदि..। इतने "त्राहि माम" के बाद उसको छोटे -छोटे पुरस्कार भी मिल जाते हैं ।कुछ अपनी बदौलत कुछ गुरू की बदौलत ।

खैर ज्यादा नाम होने के बाद उसे अब बडा पुरस्कार मिलने वाला है । अव वह अव्वल दर्जे का लेखक बन चुका है या यों कहे कि राष्ट्रीय व अंतर्रष्ट्रीय लेखक बन चुका है ।

अब वह गोष्ठीयों  मे मेम्बर आफ़ पार्लियामेंट बन कर आता है और नये ,छोटे व कम नामी लेखकों को धौंस के साथ लिखने के सदउपदेश देता है और कइयों के लेखन को सिरे से खारिज भी कर देता है ।

अब वह टीवी डिबेट्स मे जाने लगा....राजनीतिक गतिविधियों मे उसकी पूँछ होने लगी है । अगर अब  वह चाहे तो सम्मान वापसी कर सरकार की मुशकिले बढ़ा सकता है किसी भी मामले मे  क्योंकि वह अब आम आदमी लेखक बन चुका है......वह भी  सफल लेखक । शशि पाण्डेय

5/13/2016

वो चाहने वाला ( कविता )

वो चाहने वाला है मेरा 
वो चखता है स्वाद मेरा 
और मै नमक की "डेली"
सी धीरे -धीरे घुल रही॥

                             मै फूल हूँ उसकी बगिया का 
                             वो माली है बन बैठा मेरा 
                             मै नित -नित नव  खिलती 
                             मुरझा  कर  झरती रहती॥

वो  सब  कुछ  है  मेरा 
बन बैठा है मलिक मेरा 
मै रोज़  ही ठगी  जाती 
रोज़ ही बाजार मॆ बिकती 
                             
                               कैसे बनी ये दुनिया 
                               बतला दे तू 
                               मै न पैदा करती 
                               तो तुझको न मिलती ज़मी॥ 

लघु कथा -मुँगेरी लाल

एक आधुनिक सुविधाओं लैस बहुत  पुराना शहर था । उसमें एक आधुनिक टाइप का गरीब ब्रह्मण रहता था ।उसका छोटा सा ठीक -ठाक परिवार था ।उसकी परिवार मे दो लोग कमाने वाले थे ।वह खुद व उसका बेटा । बेटा कही नौकरी करता था। ब्रह्मण को किसी  काम से अपने गाँव जाना था। बेटे ने बाप कॊ फोन खरीद कर दिया कि ज़रूरत पड़ने पर फोन कर सके।स्मार्टफोन ले ब्रह्मण गाँव निकल गया । ब्रह्मण को किसी ने फोन मॆ फेसबुक व व्हट्स्प के बारे ज्ञान दिया।ब्रह्मण ठहरा लालची ।ब्रह्मण ने फेसबुक व व्हट्स्प डाउनलोड कर लिया। एक दिन फेसबुक चलाते-चलाते उसको कोइ ऐसा अप्लिकेशन दिखा। जिसमे लिखा था कि अप्लिकेशन डाउनलोड करें और  मालामाल हो जाये उसने वैसा ही किया अप्लिकेशन डाउनलोड कर खुश हो गया । वो रात को सोते हुये जाने  क्या-क्या सोचता रहा के वह अब बहुत अमीर हो शहर वापस जायेगा सारा परिवार बहुत खुश होगा ।पर ऐसा कैसे हो सकता था सिर्फ़ अप्लिकेशन डाउनलोड कोई मालामाल हो जाये ।ऐसे जाने कितने ही हम सबको भ्रमित करने वाली चीज़े समाज मे चल रही हैं ।लालच से बचें और सद्बुद्दी से काम ले ।

5/09/2016

जूते की चाह(व्यंग्य लेख )

कुछ दिन हुये शादियों का सीजन आ गया।साल भर में ऐसे सीजन दो बार जरुर आते हैं।इसी सीजन के चलते मेरी भाभी के भाई की शादी भी थी अब शादी रिश्तेदारी में थी जाना भी जरूरी था। घर में पति महोदय से बात चीत हुईं और तैयारी बन गयी जाने की ।अब तो बस एक ही धुन लगी शॅापिंग की। अब दो- तीन दिन बाज़ार जाना पड़ा सारी खरीददारी हो गयी।
                     याद आया जूते चप्पल की शॅापिंग रह गयी है। हम गये जूते 👞चप्पल 👡 की दुकान में दुकानदार हमें जूते 👞चप्पल 👡 दिखा ही रहा था। एक जोड़ी पसंद आयी उसका दूसरा पैर लेने वो अन्दर गया तभी मुझे सहसा एक आवाज आयी मैं आवाज सुनकर भौचक्की सी अपने  दाये- बायें देखने लगी पर मुझे कुछ समझ न आया। फिर आवाज आयी तो कुछ समझ आया की आवाज़ मेरे ही पैरों की तरफ से आ रही थी । नीचे देखा तो आवाज जूते से आ रही थी ।
मैंने पूछा कौन- उसने कहा मैं जूता हूँ
मैंने पूछा तुम कैसे बोल रहे हो??
उसने कहा मैं अब बोलता भी हूँ और चलता भी हूँ।
मैंने पूछा वो कैसे ??
बोलते भी हो और चलते भी हो मेरे समझ से बाहर है।
जूता बोला..... जब मैं चलता हूँ मतलब चलाया जाता हूं तो दुनिया बोलने लगती है।
मेरी फिर भी समझ न आया।
फिर मैंने जूते को बोला भई अच्छे से समझाओ
तुम चलते हो तो दुनिया कैसे बोलने लगती है ??
फिर जूते ने कहा- वैसे तो मैं पैरों में ही पहना जाता हूँ पर आजकल मेरा द्वारा और भी एक पुण्य काम किया जाता है । और वो है राजनेताओं को ऊपर फेका जाना।और मैं जैसे ही फेका जाता हूँ वैसे ही दुनिया बोलने लगती है और जो फेकता है वह भी फेमस हो जाता है। ये काम मेरे जैसे ब्रांडेड और मेरे नॅानब्रांडेड भाइ लोगों द्वारा किया जाता है ।
                   मैंने पूछा मुझसे क्या चाहते हो मैं क्या कर सकती हूँ??वो गिडगिडाया और  कहा मेरी आपसे हाथ जोड़ कल विनती है आप मुझे भी कहीं ऐसी जगह चलाये जहाँ पर मै मीडिया में आऊँ।और मेरा आपसे प्रॅामिस है आप भी फेमस हो जाओगी । मैं यहाँ पड़े- पड़े बोर हो गया हूँ। अभी यहाँ से गया पिछले महीने ही मेरा दोस्त गया और वह किसी नेता पर गिर फेमस हो गया उसका  जूते का जीवन सफल हो गया अब मैं भी चाहता हूँ मेंरा जीवन सफल हो बन जाये।
                    मैंने कहा भई मैं तो तुम्हें नहीं चला पाऊंगी कोई और ग्राहक देखो जो तुम्हें चला सके....मैं वहाँ से एक चप्पल लेकर निकल गई पर पीछे कुछ स्वर मेरा पीछा करते हुए घर तक चले आए.......
         "चाह  नहीं पैरों में पहना जाऊँ
           चाह नहीं सुन्दरी के पैरों की शोभा बढाऊ
           चाह नहीं शो रुम में चमकू
           चाह नहीं खिड़ाली का विजय इतिहास बनूँ
           चाह नहीं मँहगे कारपेट्स को रौंदूँ
           चाह तो है बस किसी नेता पर फेका जाऊँ  .....फेका जाऊँ....फेका जाऊँ ।।

औरत के हक में(लेख )

मीर तकी मीर
"अमीरज़ादो के दिल्ली मत मिला कर मीर
 कि गरीब हुये हैं हम इन्हीं की दौलत से।।
सादिया बीत गयी पर औरत 👩 के हालात जस के तस ....हर औरत की इज्जत उधारू है । किसी की दी हुई है। पता नहीं प्रकृति की कमी है या पितृसत्ता की धौंस। हर समय दबाई जाने आवाजें  को क्यो न पहली बार ही न दबने दें । वो पहला लम्हा जब कोई आवाज पुरूष होने के नाते अपनी आवाज के नीचे आपकी उठने वाली आवाज  को पैरों तले रौंद जाता है । क्यों किसी को मौका दिया जाता है ये सवाल मेरे मन में महिला होने के नाते हर क्षण कौंधता है। समाज...समाज...समाज !! समाज  आखिर ये समाज किसका है? किसने बनाया कम से कम मैनें तो नहीं बनाया।
       
                        एक औरत की इज्जत किसी पुरुष के द्वारा क्यों बनायी जाती है।औरत की इज्जत उसके अपने हाथ में है बस थोड़ी सी हिम्मत और मनोबल की जरुरत है। पर बात यह है कि ये हिम्मत और मनोबल को किसी सम्बल की जरूरत होती है। क्यों न ससुराल में पति के द्वारा पहली बार हाथ उठाते ,मां- बाप और अपनो को लानते देते ही रोक लगाई जाये या उस स्थिति में अगर औरत घर छोड़कर जाये तो उसको सहारा दिया जाये। किसी मां- बाप को हक़ नहीं कि बेटियों को मुह बन्द कर सब चुपचाप सहने के लिए विवश किया जाये।परिवार बनाये रखने के नाम पर दुहाई देते लड़की के अपने लोग कहीं न कहीं उसको मजबूर करते हैं कि जा जो भी हो रहा है उसको नजरअंदाज कर सहती रह तडपती रह।बचपन से ही हर लड़की के दिमाग में यह बात क्यों बैठायी जाती है चुप रह, धीरे बोल,कम बोल,नीचे आवाज में बात कर .....आदि -आदि।
                     औरत शायद खुद को ही कभी नहीं जान पाती है। वह क्या उसका वजूद क्या है ,उसकी औकात क्या ?? उसको पूरी जिन्दगी अपनी हक़ीकत नहीं पता होती ,वह एक दायरे में खुद को कैद कर खुश रहती है।हर समय उसके पैरों में समाज नाम की बेडियाँ बंधी हुई हैं। ऐसा मत कर लोग क्या कहेंगे ,वैसा मत कर लोग क्या कहेंगे।अरे जो कहना है कहते रहे लोग ।लोगों के लिए जिंदगी को आग क्यों लगाना ।हर औरत को उसके खुद के लिए जीना होगा। समाज में उठती हर उस उंगली को तोड़ फेकना होगा जो उसके लिए व्याध बन गयी है।
   
                 सीधी सी बात है झुकती है दुनिया झुकाने वाला चाहिए।बेचारी बनने की जरूरत नहीं
                

ये कैसा व्यंग्य??

व्यंग्य में गाली
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"व्यंग्य" नाम सुनते ही मन में गम्भीरता भरा चुटीला पन लिये कोई भाव जो  बिना किसी विरोध के हर वो बात कहने का एकल औजार होता है जो अन्य कहीं नहीं। कहने वाले कहते हैं या यूँ कहें कि कुछ विद्वानों का मानना है व्यंग्य का भी सौन्दर्य होता है। शब्द की तीन शक्तियाँ अभिधा,लक्षणा,व्यंजना होती हैं जैसा हम सबने पढा और जानते हैं।हर एक शब्द का दायरा, गरिमा, ,अस्तित्व और अर्थपूर्ण होता है। प्रत्येक शब्द में इतनी क्षमता होती है कि वह मानव के मनोभावों के उदगारों को भली- भांति अभिव्यक्त कर दूसरों तक निर्यात कर सके। फिर बात किसी  विधा विशेष की हो तो कहना ही क्या ....आपके पास शब्द भंडार है तो दाग़ते रहिये मिसाइल कोई आपका बाल भी बांका न कर पायेगा।
                  व्यंग्य में शब्द बाणों और व्यंग्य सौंदर्य का होना उतना ही जरूरी है जितना कि कविताओं में तुकबंदी , लय और अंलकारो का होना ।पर शायद इन सब तत्वों के होने के बावजूद भी एक कविता अच्छी कविता व एक व्यंग्य अच्छा व्यंग्य न कहलाये व पाठकों की रोचकता और प्रसिद्धि न मिले तो  इसके लिए क्या करना चाहिए ?? इसके लिए मैंने  कई नामी लेखकों को पढा, जाना व समझा ।कुछ बड़े लोगों ने अपनी रचनाओं मे गालियों का जोरदार प्रयोग किया और प्रसिद्धि भी पायी।
                   परसाई जी,श्री लाल शुक्ल जी की रागदरबारी और ज्ञान जी के उपन्यासों में गालियों के प्रयोग को लेकर मेरे दिमाग में खयाल आता है.......
   हम गाली कब देते हैं जब हमारी भाषा अशक्य हो जाती है???
 तो क्या  साहित्य में गालियाँ बर्जित नहीं हैं ? तो क्या हम युवा लोगो को या उनके बाद की पीढ़ियों को गालियों को "व्यंग्य साहित्य के सौन्दर्य" के रुप में देखना चाहिए ?
हम हाथापाई तब करते हैं जब गालिया भी असमर्थ हो जाती है।तब क्या हमारी भाषा,हमारी भावाभिव्यक्ति इतनी लाचार हो गयी हैंकि हम्म गालीगलौज पर उतर आये?
अगर साहित्य के महारथी गाली की अर्थबत्ता को इतना आवश्यक समझते हैं तो कल श्रृंगार को अभिव्यक्ति देनेके लिए जाने किस स्तर तक उतरआयेंगे ।
                    इस लिहाज से संगीत की दुनिया में भी मीका और हनी सिंह कतई गलत नहीं ।क्योंकि लोगों द्वारा वो भी पसंद किये गये इन दोनों को भी एक - एक पदम श्री मिलना चाहिए।क्या कहते हैं आप सब?  और साथ में सन्नी लियोनी को भी जिनका नाम लेना मैं भूल गयी थी। आपका बाज़ारवाद सफल तो आप सफल दुनिया जाये तेल लेने ।आप साहित्य में किस स्तर की भाषा का प्रयोग करें या कर चुके हैं, यह सब आपके प्रसिद्धि के ग्राफ तय करेंगे।  क्या फिल्मों को कटेगरी देने वाली संस्था के जैसे साहित्य में भी सेंसर बनना चाहिए?? या मात्र खुला बाजार जैसे "खाला का घर"   जैसा सिस्टम ही मात्र  रहेगा।  जो चाहे लिखे ,जो चाहे छपवायें बस जरूरत पड़ने पर एक दूसरे की पीठ सहला-सहला वाह - वाही बटोरिये । क्या ऐसे   साहित्य और ऐसे  साहित्यकार सही हैं ।  क्या अभिव्यक्ति की लक्ष्मण रेखा हम महिला लेखिकाओं को ही खींचणींपड़ेगी !शशि पाण्डेय।

पर्यावरण सुरक्षा दायित्व हम सबका

पर्यावरण का नाम आते ही हमारे दिल दिमाग में नदी,पेड़- पौधे,पहाड़ घूमने लगते हैं।शायद हमारे प्रकृति प्रेम का संकेत है। 5 जून को मनाये जाने वाले पर्यावरण दिवस को हर वर्ष धूम- धाम और    जोर -शोर से मनाया जाता है।
           पर्यावरण रक्षा के लिये 1986 में एक अधिनियम बनाया गया। यह एक व्‍यापक विधान है इसकी रूप रेखा केन्‍द्रीय सरकार के विभिन्‍न केन्‍द्रीय और राज्‍य प्राधिकरणों के क्रियाकलापों के समन्‍वयन के लिए तैयार किया गया है जिनकी स्‍थापना पिछले कानूनों के तहत की गई है जैसाकि जल अधिनियम और वायु अधिनियम। मानव पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने एवं पेड़-पौधे और सम्‍पत्ति का छोड़कर मानव जाति को आपदा से बचाने के लिए ईपीए पारित किया गया, यह केन्‍द्र सरकार का पर्यावरणीय गुणवत्ता की रक्षा करने और सुधारने, सभी स्रोतों से प्रदूषण नियंत्रण का नियंत्रण और कम करने और पर्यावरणीय आधार पर किसी औद्योगिक सुविधा की स्‍थापना करना/संचालन करना निषेध या प्रतिबंधित करने का अधिकार देता है।
   
                   पर्यावरण प्रदूषण पर लगाम नहीं लगायी तो प्रदूषण के कुछ दूरगामी दुष्प्रभाव हैं , जो अतीव घातक हैं , जैसे आणविक विस्फोटों से रेडियोधर्मिता का आनुवांशिक प्रभाव , वायुमण्डल का तापमान बढ़ना , ओजोन परत की हानि , भूक्षरण आदि ऐसे घातक दुष्प्रभाव हैं ।प्रत्यक्ष दुष्प्रभाव के रूप में जल , वायु तथा परिवेश का दूषित होना एवं वनस्पतियों का विनष्ट होना , मानव का अनेक नये रोगों से आक्रान्त होना आदि देखे जा रहे हैं । बड़े कारखानों से विषैला अपशिष्ट बाहर निकलने से तथा प्लास्टिक आदि के कचरे से प्रदूषण की मात्रा उत्तरोत्तर बढ़ रही है ।

दायित्व हम सबका या सरकार का?
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मेरा मानना है अगर सभी पर्यावरण की चिंता करने लग जाये अपने - अपने दायित्वों का निर्वाह करने लगे तो तो पर्यावरण दिवस मनाने की जरूरत नहीं पड़ती। दिवस तो हम उन चीज़ों का मनाते हैं जिनको हमें बचाने की जरूरत होती है।मतलब साफ है पर्यावरण खतरे में है और हम उसे बचा रहे हैं ।पर क्या सच में उसे बचा पा रहे हैं? यह मात्र प्रश्न चिन्ह नहीं चिन्ता का विषय है।कोई कार्य जो कि हर मनुष्य की जिन्दगी से जुड़ा है उसे बचाने के लिए हर मानव जाति को उतना ही तत्पर होना होगा जितनी की हमारी सरकारी व गैरसरकारी संस्थाएं।यह मात्र सरकारी काम नहीं ।स्वच्छ वायु ,जल और वातावरण सबे जीवन के लिए अनिवार्य कारक हैं।इनके बिना जीवन सम्भव नहीं  ।इसके लिए सिर्फ सरकारों पर निर्भर रहना सही नहीं ,बल्कि प्रत्येक नागरिक का ये अधिकार और कर्तव्य है कि पर्यावरण हिफाजत में वो अपना योगदान दें।
      
                    नदियाँ सूख रही हैं ,पहाड़ उजड रहे हैं ,पहाड़ों का हृदय पर्यावरण की क्षति से धधक उठा है ,उत्तराखंड में विनाशकारी प्रलय जाने कितनी जिन्दगियाँ  लील गया !! देश के जाने कितने हिस्से "लातूर"बन सूखे के बेमियादी दर्द से कराह रहे हैं । गांव के गांव उजड गये ,जानवर बेमौत तड़प -तड़प मार गये और हम अभी भी चेते नहीं। हमे और हिस्सों को लातूर बनने से बचाना होगा। पर्यावरण से बेवफाई का नतीजा किसानों ने अपनी जान गवा कर चुकाना पड़ा। क्या यह दोष मात्र सरकारों का है ?हम सब को  हर बात के लिये सरकार को जिम्मेदार ठहरा कर पल्ला झाड़ उठ खड़े होते हैं । हम ये दोषारोपण का खेल करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब सांस लेने के भी पैसे देने होंगे। हमे एक साथ उठ खड़े होना है अपने गाँव,शहर, देश,विदेश ,पृथ्वी को बचाने के लिए, इससे पहले की पर्यावरण सुर्सा बन हम सबको लील ले।

5/01/2016

शिफ्ट में शिफ्टिंग( व्यंग्य लेख)

सुबह उठते आंख मीचते लल्लन जी को अचानक परेशान हो यहाँ वहाँ भागते देख पत्नी ने पूछा.....ऐसे क्यों अफरा- तफरी मचा रखी है,तो लल्लन जी ने बताया कि आज उनकी सुबह की शिफ्ट है उनको याद ही नहीं रहा और देरी से उठने के कारण अब आॅफिस जाने की जल्दी है ।लल्लन जी जब भी शाम की शिफ्ट करके लौटते चिन्ता मुक्त हो रात को घोड़े गधे बेच सो जाते और हर सुबह ऐसे ही भागते नजर आते।उनका ये हाल, शिफ्टो में बटी नौकरी ने कर रखा था।पर करता क्या न मरता बात रोजी रोटी की थी उसके लिये जैसे और जितने भी सितम होते सहना ही था।शिफ्ट का सितम इतना की लल्लन जी के पाकिस्तान जाने -आने के शेड्यूल पर भी असर हो जाता और तो और उनका पेट भी उनसे बदहजमी के साथ-साथ तरह -तरह की शिकायते करता।बात सिर्फ लल्लन जी के शिफ्ट की होती तो ठीक था पर यहाँ बच्चों के जागने -सोने भी शिफ्ट आगे -पीछे चलती  थी जिसके कारण कई बार लल्लन जी के निद्रा में भी खलल पड जाता और लल्लन जी झल्लाहट से भर जाते ।सच सरकारी मुलाजिम हो या गैरसरकारी दूसरे के नीचे रहकर नौकरी करना उस पर भी शिफ्टो की,उतना ही दर्द देती है जितना कभी बेरोज़गारी दर्द देती थी।शिफ्टो में नौकरी इतनी भयानक होती है हमने आपने और लल्लन जी ने सोचा भी नहीं रहा होगा।मामला यू था कि लल्लन जी के सहकर्मी कन्हैयालाल थे वो उनकी धर्मपत्नी दोनों ही शिफ्टो की नौकरी करते। कन्हैया सुबह जाते तो पत्नी शाम को ऐसे करते बमुश्किल वो आपस में मिल पाते यूँ चलते -चलते दोनों के बीच झगड़े होते-होते एक दिन दोनों अलग हो गये।तब से यह बात सुन लल्लन जी थोड़ा परेशान से रहते हैं हालांकि उनकी पत्नी नौकरी नहीं करती पर फिर भी लल्लन जी की तीसरी आँख अब खुली रहती थी      ।यही नहीं लल्लन जी कभी -कभी सोच में पड़ जाते कि जनसंख्या इतनी बढ गयी इसलिए शिफ्टो में नौकरी है या कर्मचारियों की संख्या बहुत हो गयी है।शिफ्ट के असर का साइडइफेक्ट इतना ही न था पडोस और आॅफिस में जिन सुन्दरियों को देख लल्लन जी के फेस पर जो ग्लो आता था उससे भी वह हांथ धो बैठते थे।  एक दिन लल्लन जी दफ्तर निकल रहे थे तभी पडोस मे रहने वाले मिट्ठू दुबे ने आवाज लगा कर पूछा। क्या हालचाल,कहा रहते हैं दिखते ही नहीं....
लल्लन थोड़ा दुखी अंदाज़ में....हम ठीक हैं, आप सुनाइये।दुबे जी ने जवाब देते हुये कहा हम ठीक हैं और बताइये क्या चल रहा है!!लल्लन जी बिना देर किये हुए बोल पड़े कुछ नहीं चल रहा ,नौकरी शिफ्ट में चल रही है और हम शिफ्ट पर।दुबे जी पडोसियो वाली हंसी हंसते हुये निकल गये लल्लन मेरी ही तरह समझ न पाये दुबे जी क्यों हंसते हुये चले गये और लल्लन जी अपनी शिफ्ट पे चल दिए

तुम मिले( मुक्तक कविता)

तुम क्यों मिले,
कैसे मिले,
पर जब-जैसे मिले,
मुस्कुराते,
खिले-खिले मिले,
मेरे हर सवाल के,
जवाब में मिले,
कभी-कभी
मेरी जिदो पर
लाचार दिखे

बकलोली ( व्यंग्य कविता)

केहकर टाठी केहकर दार
किसान कहि-कहि
मोह  रही  सरकार
जनता जाये भाड़ मा
कौनो  देखाय न खेवनहार
दूध जरे छाछौ फूक कै पीबे
बिन टीवी,लपटाप वोट न देबे
अइहौ जौ परचार मा
देखब तुम्हरी बकलोली
देखाय देबे हमहु
तुमका आपन ठिठोली
सूखा कहि-कहि
 बटोरेव धन मारम मार
अब मिल बांट कै खांय मा
अंधेर मचाएव रहे हौ रार  ॥शशि पाण्डेय 
 

अपना देश महान( व्यंग्य कविता)

जब जागो तभी सबेरा
उठिये  ऐसा  जान
समय-समय चिल्लाये
कुछू  होत  न
करते रहो मुर्गा अभियान
अपना मुर्गा कुक ड़ू कू
 तभी सबेरा जान
ऐसे बनाओ मुर्गा
सबको उल्लू जान
ऐसे ही बन रहा
अपना भारत देश महान ।।

अट्टहास व्यंग्य की महापंचायत का सफल समापन।

उत्तर-प्रदेश की राजधानी लखनऊ में व्यंग्य की चार दिवसीय महापंचायत कार्यक्रम का सफल आयोजन सम्पन्न हुआ । इस कार्यक्रम में देशभर के नामचीन व्यंग्यकार भागीदार बने। इस कार्यक्रम का आरंभ 27 वें सम्मान समारोह से हुआ । कार्यक्रम का शुभारंभ हिन्दी संस्थान के उदय प्रताप सिंह ,मुख्य अतिथि वरिष्ठ व्यंग्यकार गोपाल चतुर्वेदी, विशिष्ट अतिथि न्यायमूर्ति अनुराग कुमार, माध्यम साहित्यिक संस्थान के अध्यक्ष कप्तान सिंह, महासचिव अनूप श्रीवास्तव ने दीप प्रज्वलित कर किया।
         
                      अट्टहास 2016 के सम्मान समारोह में  मंचासीन अतिथियों के हांथो मध्य-प्रदेश के प्रसिद्ध व्यंग्यकार डॅा० हरि जोशी को अट्टहास शिखर सम्मान व युवा व्यंग्य सम्मान नीरज बधवार को दिया गया। कार्यक्रम की शुरुआत अंजू निगम के वंदना गायन से हुई। कार्यक्रम का आयोजन जयशंकर प्रसाद सभागार में हुआ। इस प्रोग्राम के चार सत्र हुये।पहला "परम्परा से पगडंडी तक" दूसरा सत्र "व्यंग्य का महाराग" तीसरा सत्र " व्यंग्य लेखन- "सीमा शब्दों की या प्रतिभा की" चौथा सत्र "महिला व्यंग्यकार- उपेक्षा और अपेक्षा"।  व्यंग्यकारो ने अपने -अपने व्यंग्य पाठों से व्यंग्य की सुन्दर चौपाल सजाई जो कि काफी रोचक थी।
        
                      व्यंग्य महापंचायत में सुभाष चन्द्रर,पदमश्री ज्ञान चतुर्वेदी, निर्मल गुप्त,सुरेश कांत, शशि पाण्डेय, गिरीश पंकज, नसीम साकेती, डॅा० सुधाकर अदीब,मनीष शुक्ल ,अमिता दुबे,अनीता श्रीवास्तव ,शिल्पा श्रीवास्तव,शशि पुरवार, रजनीश राज,सुधांशु माथुर, नीलोत्पल मृणाल, वीना सिंह, नेहा अग्रवाल, हरे प्रकाश, आरिफ़ा आवास, अनूप शुक्ल, नीरजा शर्मा, निर्मला सिंह, अल्का प्रमोद , आशा पाण्डेय आदि व्यंग्य कार व्यंग्य की महापंचायत कार्यक्रम की शान बन पंचायत को सफल बनाया ।

अट्टहास ( व्यंग्य कविता)

अट्टहास  व्यंग्य  का  भया, बड़ा  सम्मेलन
कुछ का हुआ आगमन,कुछ ने किया अवहेलन
दिये बड़े-बड़ो ने ज्ञान ,हमे  बता गये अज्ञान
कुड़-कुड़ करते-करते,हम सर्र से गिरे धड़ाम।।