6/19/2015

हक़ का दायरा ( व्यंग्य लेख )2

कभी कोई बच्चा रोता हुआ आज भी दिखता है ज़हन में तुरंत जाने कितने सवालो की गांठे खुलने लगती हैं । बचपन में मेरे पड़ोस में रहने वाली बच्ची रश्मि  कभी -कभी रोते हुए हमारे घर आती और थोडा सा प्यार से पूछने पर घर में हुए संघर्स की कहानी को डरी और सहमी हुई  बड़ी मासूमियत से  खोल कर रख देती ..पारिवारिक कलह । जो कि वो जानती भी न थी ये क्या है ,क्यू है । बचपन बीत गया अब तो रश्मि को भी घरेलू हिंसा की समझ हो गयी है । सच तो असल में सिर्फ इतना है ये घरेलू हिंसा किसके लिए है जवाब ढूंढो तो उत्तर मिलता है "महिलाये" । पारिवारिक कलह है  तो आखिर शिकार महिलाये ही क्यू हैं । पुरुष अगर  शिकार होते भी होंगे  तो  भी प्रतिशत बहुत कम होगा । स्वतंत्रता के बाद देश की इतनी प्रगति के बाद भी महिलाओ की स्थिति में न के बराबर सुधार है । जहां तक मै समझती हूँ समाज में जो भी कमजोर है वही हिंसा और गलत व्यवहार का शिकार है । मेरी माँ जो कि शादी के बाद मुझे यही सिखाती आ रही हैं कभी घर में झगडे ही तो शांत रहना या जो भी हो सहन कर लेना । जहाँ हम भाई बहनो की परिवरिश एक सी हुई है तो फिर शादी के बाद ऐसी सीख सिर्फ मुझे क्यू सिर्फ इसलिए की मै औरत थी !!! शायद किसी अंदेशे से बचने और बचाने के लिए । क्या महिलाओ के लिए सहन शीलता के आलावा कोई और विकल्प नहीं ?? हमें कितने कानून और बनाने होंगे समाज में पुरुष की सोच बदलने के लिए । घरो के अंदर औरतो के आत्मविश्वास ..आत्मसम्मान को कैसे बचाया जाये  कोई कानून हो तो उसको भी लागू कर दिया जाये । वैसे हाँथ उठाने या महिलाओ के ऊपर बल प्रयोग की हिम्मत आती कहा से है इसके लिए कोई ट्रेनिंग तो दी नहीं जाती फिर पुरुष इतना हिंसात्मक प्राणी कैसे बन जाता है क्या उनके शरीर में दिल की जगह सिर्फ दिमाग बचता है और ऐसा दिमाग जो उनसे ये सब करवाता है । दलीलें कितनी भी दे पर किरण बेदी सिर्फ दिल्ली तक ही हैं । हकीकत तहे तो आये दिन पेपरों अखबारो खबरों में खुलती रहती हैं । औरतो को समझना होगा उनका अपना हक़ और हक़ का दायरा जितना स्वतंत्र प्राणी समाज में पुरुष है उतनी स्त्री और बात जितना सबको समझना चाहिए उस से कही ज्यादा स्त्री को समझना चाहिए । हम सब जानते हैं गुज़रे ज़माने से लेकर अब तक हमारा समाज सामंती था ऐसे में उन्ही लोगो को दबाया जाता रहा जो किसी न किसी तरह से कमजोर थे । पर कही न कही अफ़सोस ये भी है कि महिलाये भी महिलाओ को दबाने में पीछे नहीं है । समाज में बदलाव निश्चित रूप से बड़ी तेजी से हो रहा है  पर सिर्फ दिखावा है आर्टिफिशियल है असल बदलाव तब होगा जब समाज में हर इंसान को समान अधिकार होगा वो भी संविधान की किताबो में काले अक्षरो में ही नहीं बल्कि लोगो के दिल और दिमाग में भी । समाजिक तौर पर महिलाओ को त्याग , सहनशीलता एवम् शर्मीलेपन का प्रतिरूप माना जाता है । इसके भार से दबी महिलाये चाहते हुए भी अपने ऊपर होने वाले हिंसा का विरोध नही कर पाती है । कुछ मानसिक प्रताड़नाए भी हिंसा के दायरे में आती हैं ।पढ़ी लिखी महिलाये तो अपने हक़ के लिए आवाज़ उठा लेती हो मगर आंचलिक परिवेश में अनपढ़ ,कम पढ़ी लिखी और दबी कुचली महिलाओ के लिए आवाज़ उठाना सोच से भी परे है।
      देश में महिलाओ के अधिकारो के हनन की जाने कितनी तस्वीरे देखने को मिलती हैं ऐसे -ऐसे मामले जहा महिलाये गरिममय पद पर होते हुए हिंसा को रोक न पायी तो आम घरेलू महिलाओ का क्या होता होगा समझ आता है। परिवार की इज़्ज़त की दुहाई देकर यातनाओ को चुपचाप सहने वाली महिलाओ को समझना चाहिए कि डोमेस्टिक वायलेंस वायरस न सिर्फ उन की ज़िन्दगी को वरन् बच्चों की ज़िन्दगी को तबाह कर रहा है । इसलिए सबसे जरुरी यही है कि महिलाये खुद अपने अधिकारो के प्रति जागरूक हो । और अपने साथ हो रहे अत्याचारो के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं कानून की जानकारी हासिल करे और उसका वाज़िफ इस्तेमाल करे ।

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