7/05/2015

राजनीति में आम और लीची ( व्यंग्य लेख)

विहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी और नीतीश कुमार के बीच जिस तरह की राजनीति का माहौल बना हुआ है वो किसी से छुपा नहीं । बड़ी ही हास्यपद और छोटी सोच कि नीतीश कुमार ने जीतन राम के आवास में लगे आम और लीची पर पहरेदारी लगवा दी इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है आज राजनीति का स्तर क्या हो चला है ।
                 असल में ये खेल "राजनीति बनाम आम -लीची "का है । जिसकी आड़ में राजनीति की जा रही है या कही न कही अपने विरोधी को नीचा दिखाने की कोशिश की गयी । लोक सभा चुनावो में जे डी यू के खराब प्रदर्शन के बाद 17 मई को नीतीश के इस्तीफा दे देने के बाद उनकी जगह लेने के लिए जीतनराम को बुलाया गया हालाँकि यह नीतीश कुमार की बड़ी ही राजनीतिक भूल कही जायेगी नीतीश कुमार को इसका एहसास देर से हुआ और जब होश में आये तो मांझी का रुख देख नीतीश कुमार के पैरो तले ज़मीन खिसक गई ।नीतीश अपनी चाले चलने लगे तो वही मांझी अपने पांसे विछाने लगे । मांझी बागी हो दलित राजनीती खेल ,खेलने लगे । मुख्यमंत्री के पद पर रहते मांझी ने कुछ ऐसे फैसले किये जो दलितों के समर्थन में थे जिससे वे भी विहार के दलितों के नेता बन गए ।
           अब मांझी अपनी अलग पार्टी के तौर पर विहार की राजनीति में खुद को आज़माने के लिए ज़मीन तैयार कर ली थी । परन्तु  उन्होंने साफ कर दिया है कि वो चुनाव बाद जरूरत पड़ने पर भाजपा के साथ समझौते या समर्थन के राज़ी हैं । अब ये मांझी नाम की मुसीबत सिर्फ नीतीश के लिए नहीं भाजापा के लिए भी बन गई ।
                   नीतीश के महादलित और मांझी के महादलित अलग -अलग श्रेणी में बट चुके हैं ।देखना दिलचस्प होगा विहारी महादलित किसको अपना नेता बनाते हैं । विहार में सत्ता का सुरूर जोरो पर है तो वही जनता माई -बाप बनने को । भाजापा भी मांझी के बहाने अलग तरीके की राजनीति करने की तयारी में है ।
               जितनी नीतीश और मांझी की कुश्ती का खेल खेलेंगे भाजपा को उतना ही फायदा पहुँचेगा । ये भाजपा नेता बखूबी जानते हैं ।भाजपा का पूरा प्रयास रहेगा कि आम और लीची के बंटवारे में वो बाज़ी मार ले ।
              यह राजनीतिक प्रतिस्पर्धा आम लीची के बंटवारे तक सिमट कर नही रह गई बल्कि इसमें सत्ता पर काबिज़ नीतीश की बेज़ा अभिमान की पराकाष्ठा व् मांझी का अड़ियल रुख सम्मिलित है जिसमे आम और लीची की महक गायब है, इसमें पिछड़ा वर्ग व् दलित वोटों पर अपने कब्ज़े की भीनी -भीनी दुर्गन्ध है । जो राजनीति की समाज़वादी विचारधारा में ये हमारे वोट है की ओर बंटवारे पर अपने कब्ज़े का स्पष्ट इशारा करती है कि आम हमारा लीची तुम्हारा । इसे आम लीची की राजनीति कहे तो क्या यह व्यंग्य है , नही ये राजनीति का निचला पायदान जरूर है जो गिरने के स्तर को दर्शाती है ।
                     देखना है कि अब ये आसन्न चुनावो में कहाँ तक लुढक कर जायेगी और बदले स्वरूप् में मांझी कितनी आम के मिठास का रसास्वादन भाजपा को पहुचाएंगे ।
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                    शशि पाण्डेय

5 comments:

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