गीत : मोहे चढ़ा व्यंग्य का रंग
होना न तुम बिलकुल दंग
न रह पाओगे तुम मेरे संग।
तुम हो श्रृंगार को चाहनेवाले
मैं ठहरी व्यंग्य की दीवानी
हर बात ढूँढो तुम मधुर-मधुर
और मैं ढूँढूँ कड़वी-मिर्चानी
तुम पर प्रेम के बदरा बरसें
मोहे चढ़ा है व्यंग्य का रंग
होना न तुम बिलकुल दंग
न रह पाओगे तुम मेरे संग।
तुम कहते रात सुहानी है
मैं बोलूँ रात भयानक है
तुम कहते रुत मस्तानी है
मैं कहती चोरों की आहट है
दिल हो जाता चौकन्ना सा
जब भी मचता कोई हुड़दंग
होना न तुम बिलकुल दंग
न रह पाओगे तुम मेरे संग।
तुम कहते ये प्यार की बारिश है
मैं बोलूँ मानसून की साजिश है
तुम कहो तन-मन ये मचलता है
मैं बोलूँ ये मौसमी खारिश है
सावन में उठती है अब तो
दिल में व्यंग्य की ही तरंग
होना न तुम बिलकुल दंग
न रह पाओगे तुम मेरे संग।
तुम कहते बाँहों में आ जाओ
मैं बोलूँ पहले यह देश बचाओ
तुम चाहो प्रीति के पल्लू में रहना
मैं चाहूँ तुम जा कुरीति को मिटाओ
बने समाज फिर नयी तरह का
और बदलें भारत के रंग-ढंग
होना न तुम बिलकुल दंग
न रह पाओगे तुम मेरे संग।
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