तुमसे पूछती मै
कहाँ हो तुम ?
जानना फिक्रमंद हूँ तुम्हारी
जानना तो जानना
दिल से मानना भी !
चाहती हूँ हाल जानना तुम्हारा
तुमसे पूछती मै
क्या कर रहे हो ?
जानना यादों मॆ हूँ तुम्हारी
चाहती हूँ उस पल साथ तुम्हारा
पेशा पढ़ाना ..... लिखना शौक और ज़रूरत है ।खुल्ला पत्रकारिता ,सामाजिक ऐब और कलम !!😊😊
7/29/2016
तुम्हारा साथ (कविता )
7/28/2016
समीक्षा -मालिश पुराण (व्यंग संग्रह )
कभी -कभी साहित्य पढ़ने के उपक्रम मे कुछ ऐसा मिल जाये जिसको पढ़ कर पाठक को बोध लगे ,यकीनन उस साहित्य का साहित्यक इतिहास मॆ उत्कृष्ट स्थान योगदान माना जायेगा ।
ऐसे पढ़ने के उपक्रम मॆ "मालिश महापुराण" व्यंग्य संग्रह पढ़ा जिसके किसी -किसी लेख को एक से दो बार भी पढ़ा । संग्रह के एक लेख के कुछ अंश...
"लोग कहते थे नया हो जा पुराना पन उतार
मै भी क्या करता सरे बाज़ार नंगा हो गया"
मै भी कुछ ऐसा ही सोच रहा हूँ ।वैसे अपने हरिशंकर परसाई भी कह गये हैं कि साहित्य मॆ नंगई का पेमेंट अच्छा होता है ।
मै भी इस सुभाषित मॆ साहित्य के साथ समाज भी जोड़ना चाहता हूँ ।दूसरी बात ,बाज़ार आज़ हम्माम हो गया है जिसमे सभी एक से दिख रहे हैं ।
मै कुछ और वेन्यू सोच रहा हूँ ,जहाँ कुछ नया -नया सा महसूस हो सके ("नया और नया" शीर्षक से )"
व्यंग्य ऐसी विधा जिसके तरकश मॆ समाज के सारे ऐबों को निशाने मॆ लेने के लिये तीर मौजूद रहते हैं ।
कौन सा तीर कहाँ और किस ढंग से साधा जाय यह बात लेखक का तीर यानी लेखक कि कलम तय करती है। इसी हुनर का एक नमूना पढिये जो की लेखक का दावा कि यह उसका पेटेंट है...यह साहित्यिक विधाओं के संग्रहों का विवरण है किसी दवा के माफिक है...
"कविता संग्रह की डिबिया
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किसी संग्रह के आवरण चार पर लिखना चाहिये --ईच 500 एमजी कविता कन्टेन्स एक्स्ट्रैक्ट आफ़ :
1.केदारनाथ कलौँजि..50mg
2.फ़ैशन फिनाएल....100mg
3.स्फीति सर्पगंध......200mg
4.अनुभव अलसी....005mg
5.प्रतिभा पतीसा....005mg
6.भ्रम भिंडी.........40mg
7.पुरस्कारेच्छा.....100mg
जाहिर है यह विवरण अलग -अलग संग्रहों के लिये अलग -अलग होगा ।मैने तो बस एक राह दिखायी है ।युग पुरुष इसके अलावा और कर भी क्या सकते हैं ।"
इस व्यंग्य संग्रह के लिये लेखक ने मालिश के प्रकार ,स्थिति और तरीकों व जरियो पर निश्चित गहन मंथन किया है जैसा की रचनाओं मॆ साफ दिखता है ।
संग्रह मॆ रचनाओं की सधी हुई हिंगलिश दाल मॆ तड़का सी महकती है। एक से बढ़कर एक नये विषय व उन विषयों पर चाटुकारिता के चरम को उजागर करती वक्रोक्ती।
ठहरा हुआ पानी गन्दला होकर अपनी स्वच्छता और पारदर्शिता खो देता है ,भाषा का ऐसा ही नियम है ।आपकी भाषा बहती हुई सहज धारा सी प्रवाह होती है । जो आपके मनोभावों की व्यंजना करती गयी ।
लेखक द्वारा कही जाने वाली बात को शब्दों के हलक से निकलवाना आसान नहीँ, लेकिन यह हुनर सुशील जी को बखूबी आता है । किताब मॆ व्यंग्य लेखों मॆ व्यंग्य कविताओं का तड़का लेखों का सौंदर्यवर्धन करता है ।
"हिम पिघलते ही अभिमान का ,
सूर्य निकला समाधान का ।
आदमी मॆ ही मौजूद है ,
मत पता पूछ शैतान का ।"(मोगैम्बो खुश नहीँ होते ) शीर्षक से ।
संग्रह मॆ विषयों की संजदगी दिखाती है कि लेखक कितना संजीदा और विचारशील है । रचनाओं मॆ आंतरिक अन्विति और शैल्पिक गठन दोनो मिलकर आपकी रचनाओं को बेजोड़ बनाते हैं ।
आपकी रचनायें हम जैसे सीख बाजो के लिये ,खाने मॆ क्या डाला जाये कि स्वाद बढ़े कुछ इस तरह से है । मै पूरे दावे से कहती हूँ "मालिश पुराण" पठनीय और संग्रहणीय है ।
बात किताब के आवरण की ,की जाय तो आवरण मॆ शहरी भाषा मॆ "पुतले" का और ग्रामीण भाषा मॆ "धोखार" का चित्र है जिसका उपयोग प्राचीन समय से खेतों मॆ आये जानवरों को भगाने के लिये किया जाता था और वर्तमान समय मॆ राजनीतिक परिप्रेक्ष्य मॆ भी खूब किया जाता है ।
चित्र चूँकि पुतले का है जो की निर्जीव इंसान को दर्शाता है आज हम सब भी स्वार्थ मॆ असहाय और निर्जीव हो चुके हैं । व्यंग्य संग्रह का समाज मॆ होने वाले चाटुकारिता पर करारा प्रहार है ।
मुझे पूर्णतः विश्वास है आपकी अफलातूनी कलम यूँ ही निर्बाध ,बेबाक चलती रहेगी...आप लिखते रहे ,हम पढ़ते रहेंगे...इसी के साथ आपको व्यंग्य संग्रह "मालिश पुराण " हेतु बधाई एवम असीम शुभकामनाएँ ।
व्यंग्य संग्रह - मालिश पुराण ।
लेखक -- सुशील सिद्दार्थ ।
समीक्षक -- शशि पाण्डेय ।
आवरण -- बँशीलल परमार ।
प्रकाशक --किताब घर ,4855-56/24,
अंसारी रोड ,दरिया गंज,नई
दिल्ली--110002।
मूल्य ----एक सौ पचास रुपये मात्र ।
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7/25/2016
औरत (कविता )
औरत
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मै मर्यादा का अवतार हूँ
मै समझौता का दूजा नाम हूँ
मै मितभाषी का सरोकार हूँ
मै भाइयों का अभिमान हूँ
मै माँ -बाप का दुलार हूँ
मै राखी का त्यौहार हूँ
मै गृह लक्ष्मी का सौभाग्य हूँ
मै पति का अधिकार हूँ
मै नंद औ देवर का दुलार हूँ
मै बच्चो की रक्षक हूँ
मै माँ औ सास की संयोजक हूँ
मै रिश्तों का अंजाम हूँ
मै सुंदरता का परिमाप हूँ
मै ,हाँ !एक औरत हूँ ।
पर...
आती नज़रों से तार -तार हूँ
चेहरे से सीने पर आती नज़रों से बेजार हूँ
रात से डरती मै कारागार हूँ
संता -बंता सी बनती परिहास हूँ
छेड़खानियो से लाचार हूँ
बैठकों से दर किनार हूँ
तेजाबो का इस्तेमाल हूँ
राजनीति मॆ बवाल हूँ
गंदे लोगों का खिड़वाल हूँ
धंधे वालों का धन -माल हूँ
इतनी मुश्किलों मॆ माँ -बाप का जंजाल हूँ
मै फ़िर भी कहलाती महान हूँ
मै कहलाती महान हूँ ॥
7/21/2016
जाहिल ए तारीफ़ ( व्यंग्य लेख )
अंजाम ए कुछ भी हो यार
देखना अब तो प्यार है
होता है तो हो जाये
अब तो बस आर या पार ॥
चुनाव के दिनों मे नेता लोग दूसरों की पुंगी बजाने के बजाय खुद के साथ -साथ पार्टी की भी बैण्ड बजा रखते हैं । हर पार्टी मे ऐसे नायाब सरफिरे पाये जाते हैं।
ये पार्टी के नायाब सरफिरे नेताओं का प्यार भी गजबै होता है । कुच्छौ कर गुज़रने पर आमदा । ये जिस कला से पार्टी की लुटिया डुबाते हैं ये देखते ही बनता है । मानौ ये कहते हो.....
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे है
देखना है जोर कितना कातिल ए बाजू मे है ॥
हाल ही मे कुछ नेताओ ने महिला नेताओं को लेकर टिप्पणी की वह बेहद ही जाहिल ए तारीफ है ।
ये पुण्य काम करने के बाद इस्तीफा ,इस्तीफा न होकर यूँ लगता है पिंड दान हो या कोइ क्रांति हो! इससे पार्टी तर जायेगी या कोइ बदलाव हो जायेगा ।
महिला विरोधी वक्तव्य देने के बाद उससे बड़ी लतीफगिरि इनके इस्तीफे के बाद ऐसा लगता है जैसे इसके बाद देश मे महिलाओ की दशा मे तेजी से सुधार होगा। ऐसे इस्तीफे पार्टी की छवि सुधार के लिये बूस्टर इस्तीफा साबित होते होगे । माँ -बहन की गालियों का दुरपयोग नही होने लगेगा सिर्फ वक़्त -वक़्त ,मतलब वक़्त पड़ने पर ही दी जायेगी ।
इसके साथ ही वेश्यावृत्ति पर भी रोक लग जायेगी । औरतो की तरफ़ उठने वाली हर नज़र पाकीजा होने लग जायेगी । अगर किसी ने गंदी नज़र से घूरा भी तो वह इस्तीफेबाज नेताओं के नाम मात्र लेने से सर्र से सर से ले कर पांव तक पानी -पानी हो जायेगा और भय से थर थर्रा उठेगा।
ऐसे पूछ जिनकी कोइ पूँछ पार्टी मे नही होती अपनी पूँछ बनाने के लिये ही ऐसी पूछ हिलाते हैं और पूछ हिला कर पार्टी को भी हिलाकर हिनहिनाते हुये बाहर का रास्ता नपा दिये जाते हैं ।
तो कुछ पार्टी के मेरुदंड बन वही निर्लज्जता से अडिग खीसे निपोर -निपोर कैमरे मे फेस चमकाते रहते हैं। पक्ष -विपक्ष के बहाने ये कुंठित प्राणी अपनी कुंठायें निकालते रहते हैं।
ये कुंठित तो अपना काम कर बैठते हैं और इधर पक्ष -विपक्ष प्रेमी जनता आपस मे जूझ मरती है। कभी मामला ज्यादा उलझा तो पार्टी प्रेस कांफ्रेंस कर वैतरणी भी पार कर लेती है।
तो ऐसे मामलो मे मीडिया ऋषि नारद को कभी नही भूलती है वह आग लगाने की सारी सामग्री प्राईम टाईम के नाम चार लोगों को बैठा खूब आग लगवाते हैं । मीडिया बेचारा तो इस ताक मे रहता है कि कोइ घटना घटे और मेरी दुकान चले । एक शेर जो हाल ही मे पढ़ा वो यहाँ सटीक बैठता है कुछ इस तरह...
कुछ दिनों से है बहुत खामोश मेरा दिल जिगर ,
कोइ दुर्घटना घटे तब गीत मै पूरा करूँ ।"सुशील सिद्धार्थ
मै यहाँ "गीत" को समाचार या ख़बर फिट मानती हूँ । हर पार्टी ,ऑफिस , गली -मुहल्ला सभी जगह नीचता रस से लबरेज़ कुछ तुच्छ लोग मिल जाते हैं जो औरतो के नाम पर स्वयं गाली लगते हैं। ऐसे लोग अपने साथ -साथ समाज मे हर किसी का नुकसान करते हैं ।
ऐसे लोगों के इस्तीफे सिर्फ घड़ियाली आँसू साबित होते हैं । इनको और तगड़ा सबक सिखाने की ज़रूरत है । वरना पार्टी प्रेम के नाम पर न जाने क्या -क्या कर बैठेंगे।
7/16/2016
बेवकूफी के सौंदर्य" व्यंग्य संग्रह की समीक्षा
"बेवकूफी के सौंदर्य" व्यंग्य संग्रह की समीक्षा
व्यंग्य संग्रह - बेवकूफी का सौंदर्य
समीक्षक -शशि पाण्डेय
लेखक -अनूप शुक्ल
मोo नम्बर -9425802524
मूल्य -150 रुपये मात्र
प्रकाशक -रुझान पब्लिकेशन
एस -2,मैपल अपार्टमेंट ,163 ढाका नगर ,सीरसी रोड ,जयपुर ,राजस्थान -302012
(9314073017)
अनूप शुक्ल जी का बेवकूफी का सौंदर्य व्यंग्य संग्रह की समीक्षा पर हमने सोचा बेवकूफी भरी हो तो अच्छा । अनूप शुक्ल वैसे तो नाम अच्छा है पर मेरे हिसाब से इनका नाम अनूप नहीँ अनुरूप ज्यादा फिट बैठता है वजह ये जो कहना चाहते हैं वो शब्दों से खेल कर कहला ही लेते हैं ।
वैसे तो हर साहित्य और सुंदर चीज़ का सौंदर्य होता लेकिन बेवकूफी का भी सौंदर्य होता यह ज्ञान इस अनूठे लेखक द्वारा पता चला ।😊
कट्टा कानपुरी के नाम से लिखते हैं जो की अपने आप मे एक व्यंग्य है । बहुत से लोगों को पढ़ा पर ये अलग सा शीर्षक लगा...फ़िर क्या बेवकूफी के सौंदर्य को घर मंगाने की व्यवस्था कर दी ।
यह व्यंग्य सौंदर्य भाषा और शैली के मानको मे उम्दा है ।यह संग्रह पढ़ना शुरू किया तो पढ़ती ही गई । हर बात को इतनी सहजता और सरलता से कहा गया है कि यही तरीका व्यंग्य के नायक को अलग बनाता है।
ये ऐसे फेसबुकिया व्यंग्यकार फेसबुक से होते हुये ब्लॉगर तक और अब किताब तक जा पहुँचे । ये तो रही लेखक की बात ।अब बात करते हैं लेखक के व्यंग्य संग्रह की । जितना अलग किताब का शीर्षक उतने ही अनोखे व्यंग्य लेख।
व्यंग्य लेखों मे लेखक ने जिन विषयों को उठाया है कुछ सम्वेदनशील तो कुछ समाजिक अनिमियताओं पर ज़बर्जस्त प्रहार करते हैं ।
संग्रह का पहला लेख"छोटी इ ,बड़ी ई और वर्ण माला"
किसी परिवार की देवरानी, जेठानी और बुजुर्गो के बीच की खींच तान सी लगती है वैसे इसकी तुलना हम दिल्ली सरकार व केन्द्र सरकार की तू तू ,मै मै से कर सकते हैं । इस लेख के तू तू ,मै मै के अंश.....
"दोनो मे से किसी के पास हाईस्कूल का सर्टिफिकेट तो है नहीँ कि बड़े -छोटे का मामला तय हो सके ।आपस मे जुड़वा मानने को तैयार नहीँ ।हर "ई" चाहती है उसको ही बड़ा माना जाये"
वैसे इन लाइनों से कुछ और भी भाव उभरते हैं जो लेखन क्षेत्र से हैं । उम्मीद है आप समझ ही गये होंगे।
बात करें किताब के तीसरे संग्रह की तो पता चलता है बेवकूफी का भी अपना सौंदर्य होता है । मुझे जहाँ तक समझ आता है लेखक 1st अप्रैल बेवकूफी दिवस से खासा प्रभावित होंगे । प्रेरित कहाँ से हुये ये नहीँ मालुम, पूछना पड़ेगा । इस लेख की सबसे मजेदार लाईने आप लोगों के बीच.....
(लोगों के लिये ) "गर्ज यह कि दुनिया की हर बेवकूफी करते हैं सिर्फ इसलिये कि लोग उनको होशियार समझे ।काबिल माने ।बेवक़ूफ़ न समझे ।"
इसका मतबल अब से होशियारी बंद करिये और बेवक़ूफ़ बनना शुरू करिये जिससे होशियार बने ।
संग्रह मे एक से बढ़कर एक तीखे ,मजेदार लेख हैं।बात करूँ इसमें से मेरे पसंदीदा लेख की तो वो है "द्वापर मे भूमि -अधिग्रहण" इससे पता चलता है यह अधिग्रहण नाम की बला का भौकाल जिनको हम ईश्वर मानते उस ज़माने से है । और हम सब यहाँ कलियुग मे अइसने चंगेज़ खाँ बन रहे हैं ।
अगर आप सब भी बेवक़ूफ़ मेरा मतलब होशियार बनना चाहते हैं वो भी बिना बेवक़ूफ़ बने तो ,आप भी यह संग्रह पढिये। और लेखक अनूप जी को तो कहने की कोइ ज़रूरत ही नहीँ कि ऐसे ही लिखते रहिये क्योंकि ये काम वो कर ही रहे हैं करते ही जायेंगे मानेंगे नहीँ । रोज़ सुबह -सुबह एक लेख चिपका देते हैं जिसको बिना पढ़े रहा नहीँ जा सकता ।
एक बार फ़िर कमाल के व्यंग्य संग्रह के लिये बधाई और शुभकामनाएँ यूँ ही 100cc बाइक के इंजन जैसे व्यंग्य जगत मे ज़बर्जस्त फर्राटा भरते रहे ।धन्यवाद ।
7/15/2016
मै और मेरी नींद (कविता )
मै और मेरी नींद रोज़ सुबह बाते करते हैं
काश तुम न होती अच्छा होता
काश तुम न होती तो
बिस्तर छोड़ते मुझे दुख न होता
काश तुम न होती तो
हर सुबह छुट्टी कर लूँ क्या ?न होता
काश तुम न होती तो
आँख खुलने के बाद भी आलस न होता
काश तुम न होती तो
अलार्म के बाद भी पाँच मिनट और न होता
काश तुम न होती तो
बिस्तर से बाथरूम जाने तक मुझे टाईम न लगता
काश तुम न होती तो
उँघते हुये ब्रश न करना पड़ता
काश तुम न होती तो
ये न होता ,वो न होता ,मेरे मे बस मै होता ॥शशि पाण्डेय ।
7/10/2016
दौर ए शेल्फी ( व्यंग्य लेख )
7/08/2016
7/06/2016
हो रही बकवास ( व्यंग्य कविता )
गधे खा रहे अनानास
जाने कब बने अमलतास
बहरे बन बैठे अमीरदास
स्वारथ पर ही सबका विश्वास
झूझत जनता चुनाव बाद
हँस झेलते कष्ट पचास
7/05/2016
काश तुम न जाते !
तुम्हारा फेसबुक अकाउंट देख लगता है जैसे तुम हो...यही कही कही हो...जानती हूँ तुम अब इस दुनियाँ के नही रहे ।
अनहोनी ,विपत्ति जैसे शब्दों को तुमने चरितार्थ कर दिया..इधर कई दिनों से किसी भी काम मे मन नही लग रहा था । इस बीच मै तुम्हे याद कर रही थी जब से घर से आई हूँ तुम मुझे मिलने नही आये हो ।तुम्हे फोन ही करने वाली थी की घर आ जाओ ..दो दिन स्कूल खुलने के बाद संडे आया घर के काम निपटाये और सुबह खाने का मन नही था सो दिनभर मे शाम को खाना लेकर खाने बैठी थी दाल -चावल खा रही थी।
तुम्हे मन ही मन याद कर रही थी । तभी मेरे फोन की घंटी बजी तुम्हारे बड़े भाई का फोन था ...मेरे हाँथ खाने मे थे बिटिया को फोन उठाने को कहा....तुम्हारे बड़े भाई ने बिटिया से कहा पापा से बात कराओ अरजेंट है ।
फोन मे हैलो हुआ उधर आवाज़ आई तुम्हे करेंट लग गया और तुम्हे होलि फेमली हॉस्पिटल लेकर आये डॉ कह रहे हैं अब इसमें कुछ नही है....
तुम्हारे छोटे भइया यानि मेरे पति ये ख़बर सुनते ही फोन मे चिल्ला पड़े थे उनके हाँथ से फोन छूट गया था वो कांपने से लगे थे...कुछ बता नही पा रहे थे ।
मैने फोन उठाया वापस तुम्हारे भाई को फोन लगाया जो बताया गया मुझे वह सुनकर मै सर से पांव तक जड़ हो गयी मेरे मुँह से चीख निकल गई ।
हम दोनो ने जल्दी - जल्दी जरूरी सामान लिया और हॉस्पिटल पहुँचे वहाँ तुम्हारे मेरे रिश्तेदार सब लगभग आगये थे तुम्हारे भाई से सामना हुआ तो दोनो ही फूट -फूट कर रो पड़े...जैसे -तैसे हिम्मत कर अंदर गई तुम इमरजेंसी मे पड़े थे जैसे सो रहे हो...तुम्हारी और भी कोइ थी जो तुमसे लिपट हुई पागलों जैसी हरकतें कर रो रही थी..उसकी जिद थी तुम्हे किसी और हॉस्पिटल ले चले...
तुम्हे ऐसा देख यूँ हो रहा था जैसे मेरी भी साँस रुक जायेगी ।तुम्हारे हाँथ को अपने हाँथ मे लिया ,एक हाँथ तुम्हारे सीने मे रखा अंदर से लगा जैसे तुम अभी साँस लोगे और शरीर मे कोइ हरकत होगी...पर अफसोस ऐसा नही हुआ तुम दगाबाज निकले ।तुम्हारे शरीर मे चोटों और जलने के निशान मौजूद थे जिसकी वजह से तुम्हारी जान गयी ।मैने तुम्हे सर से पांव तक छू कर देखा....जहाँ चोटें आयी थी वहाँ नही छुआ सोचकर छूने मे तुम्हे दर्द न हो....ये मेरा मन था अब तुम्हे दर्द कैसा तुम तो जा चुके थे दर्द और पीडा के संसार से दूर ।
अब तैयारी हो रही थी तुम्हे माँ -बाप के घर ले जाने की पर तुम्हारे शरीर पर कानूनी कार्यवाही होनी थी..पोस्टमार्टम के लिये तुम्हे एम्स ले जाया गया ।तुम्हे उन रास्तों पर ले जाया गया जहाँ कभी तुम अपनी गाड़ी से दौड़ते थे । तुम्हारे शरीर को तुम्हारे भाई और निकट जन मोचरी मे जमा कर घर आ गये ।मै रात मे सोचती रही काश कोइ चमत्कार हो जाये और तुम जिंदा हो जाओ..पर ऐसा कहाँ होता है...सोचती रही हम सब घर है और वहाँ तुम अकेले पड़े हो...
रात भर फोनों के दौर चल रहे थे तुम्हारे सारे भाई तुम्हारे फ्लैट पर थे मै यहा बच्चो के साथ ,बच्चे सो गये और मै रात भर बैठी तुम्हारे भइया को पूछती रही क्या...कैसे !वो तुम्हारे फ्लैट से रात को दो बजे भीँगते हुये घर आये ।रात पहाड़ सी बड़ी हो रही थी... बैठे, रोते याद करते सुबह के पाँच गये बैठे -बैठे एक बार मेरी और तुम्हारे भइया की आँख गई। आँख खुली तो 6.20 हो रहे थे उठे धीरे -धीरे कुछ फैला सामान समेटा नहा धो तैयार हो ..तुम्हारे भइया ने मुझे तुम्हारे फ्लैट पर छोड़ा ...और तुम्हारे दोनो भाईयो को ले एम्स चले गये ।
तुम्हारी भाभी ने मुझे देखा और फफक कर रो पड़ी...दीदी सब ख़त्म हो गया । दोपहर मे फोन आया पता चला पोस्टमार्टम हो गया अब तुम अपने घर माँ -बाप और एक लाडली बहन के पास ले जाये जा रहे हो ।
बहन जिसकी शादी तुमने तय की थी...कहते थे भाभी ,बहन की शादी मे दबा कर पैसा खर्च करूँगा सब फिट कर लिया है । तुम जब भी घर आते कभी ये नही पूछते थे मै कहाँ हूँ बस बोलते थे दूध है न ?चाय पीने आ रहा हूँ..और मै तो जैसे तुम्हारा इंतजार ही करती रहती थी...तुम्हारे जेसा चाहने वाला..खुशदिल केयरिंग देवर कौन नही चाहेगा ।
तुम्हारे फ्लैट मे बचे लोग ट्रेन से जा रहे हैं और तुम एम्बुलेंस से ।तुम्हारे माँ -बाप को अभी भी झांसे मे रखा गया है नही बताया गया कि तुम अब नही रहे दूसरी दुनिया मे जा चुके हो । तुम्हारी बाइक मेरे यहा खड़ी की है...तुम्हारे गाड़ी की चाभी का गुच्छा जो तुम मेरे यहा लेकर आते थे....तुम्हारे बगैर मेरे वो पास रखा मै उसको भी देख रोती रही..
तुम्हारा शरीर घर पहुँचा पूरा गाँव उमड़ पड़ा है तुमसे मिलने को..यहा तक की वो लोग भी आये हैं जिनका तुम्हारे खानदान से बोलचाल नही था । तुम्हारी माँ रोने के बजाय तुम्हे देख गाने गा रही है वो कह रही है मेरा हीरो आया है आवाज़ लगा तुम्हारी बहन से पेडे लाने बोल रही है...पेडे ले कर आ भइया आया है...तुम्हारा भाई...बिलख -बिलख कह रहा है हमने भाई नही बाप खो दिया । तुम्हारे छोटे भाई ने घर मे लगे मंदिर को तोड़ -ताड़ कर बाहर फेंक दिया..
तुमने छोटी सी उम्र मे भाई ,घर ,परिवार सब कुछ इतना अच्छे से सम्भाल लिया था कि कोइ बड़ा भी न सम्भाल पाता । तुम्हारी माँ ने जिंदगी मे बहुत कष्ट झेले थे....तुमने सब कुछ सम्भाल उसको दुनिया भर के सपने दिखा दिया था...और फ़िर सब धराशायी कर गये ।
हर किसी को टोकना ,आदर -सम्मान देना तुम्हारे अच्छे होने की बुनियाद थी । छोटे -छोटे बच्चे तुम्हारे दीवाने थे...चाचू -चाचू कहते न थकते थे ।
मै भगवान मे किन्हीं वजहों से विश्वास नहीँ करती...रही सही आस्था तुम्हारे जाने के बाद वो भी नहीँ रही
जानती हूँ तुम सब देख रहे हो ,समझ रहे हो । तुम यही हो हम सबके साथ तुम भी उतने ही परेशान ,बेचैन हो जितने हम सब । काश कोइ तरकीब होती तुम्हे वापस ला सकते..तुम कभी नहीँ भूलोगे...कभी भी नहीँ..तुम्हारी भाभी
7/03/2016
धर्म के नाम पर (व्यंग्य लेख )
धर्म के बाजारवाद के चुनावी अनुसंधान के निचोड़ के फलस्वरूप पनपे इस तत्व से प्रभावित दद्दा कबहूं बाहर आते कबहूं बाहर जाते ...कस्बे मे इन्टालरेंश की बात सुन दद्दा ऐसे परेशान हो इधर -उधर घूम रहे थे जैसे उनकर कौनो गाय ढील दिया हुआ हो ।
दद्दा बखूबी समझते थे ये क्या बला है..टहलते -टहलते सोच रहे हैं आखिर ये तो होना था । इंटालरेंश जो की शहर के पढ़े -लिखे लोगन के बीच से छोटे कस्बों और गाँव तक आ पहुँचा है । किसी प्रोजेक्ट प्रोडक्ट के मानिंद है ।
जाने क्यों ये कुछ -कुछ दिनों मे लौट -पौट कर आ खड़ा होता है । ऐसे जैसे उधारी ली हो किसी ने ।
हालाँकि शहर ,कस्बों और गाँव मे ऐसे हालात नही दिखते जैसा टी वी और पेपर मे दिखाया जाता है ।
वेसे है तो गम्भीर मुद्दा पर आजकल बात -बात पर लोग हँसी मजाक मे इसका नाम लेना नही भूलते । एक घर मे कितने तरह के लोग रहते हैं उनके बीच उठापटक होते रहना सभी सदस्यों के मानसिक रूप से स्वस्थ्य होने की निशानी है । फ़िर एैसी बातो पर इतना हल्ला बोल क्यों ?
चोर ,डकैत ,बलात्कारी और अन्य समाजिक दोष कम हैं जो इस बला करिया भूत की लंगोटी पकड़कार खिचाई की जा रही है । ज्यों ही किसी प्रदेश का चुनाव आता है ये चीन के ड्रेकुला की भाँति मुँह फाड़ कर फड़ -फ़ंडाने लगता है ।
आरोप -प्रत्यारोप के दौर मे कम से कम जनता को समझना चाहिये के उसे क्या परोसा जा रहा है ।मुझे इस मुद्दबे पर निदा साहब का एक शेर याद आता है-
""बदला ना अपने-आप को , जो थे वही रहे , मिलते रहे सभी से मगर अज़नबी रहे ।""
ये दौर ए इन्टालरेंश बहुतों के लिये मौका ए गँगा मे हाँथ धोने जैसा भी रहा । क्या लेखक और बुद्दजीव.. इन जीवों को क्या इस बहाने ख्याति की ज़रूरत थी ? या वह खुद भी किसी भेड़ -चाल की बारात मे मिल बिलबिला गये ।
कलम भाँजने से ज्यादा पुरस्कार वापसी हुई । भौं तान सिर्फ दिमाग़ की जालसाजी से बचते तो अच्छा होता । आइकन बन बखिया उधेड़ना कहाँ का जायजपना रहा । हम सही -सही बताये दे रहे हैं कभी -कभी टाँग खींचते रहने से भी बात लम्बी हो जाती है ।
हमारी भारतीय राजनीति और राजनीतिज्ञ ऊसर हो चले हैं । इनकी हरयाली वोट देख कर ही आती है और इसी मे ये तोड़ -भांज कर तीन दो पाँच खेलते हैं ।
पर दद्दा और दद्दा जैसे देश के लोग जानते हैं भारत मे ये फैलाया गया रोग झूठ है । ये बेमियादी बुखार है जो तड़ीपार कर चुका है इसकी सीमा रेखा यही ख़त्म हो जाती है । हालाँकि इसको जड़ से ख़त्म कर पाना बेहद ही मुश्किल है पर नामुमकिन नही ।
यह समय उदारीकरण का है यहाँ हर बात की कीमत तय होती है फ़िर वह धर्म हो , व्यक्ति हो , सम्वेदना हो ! आज ज्ञान (व्यंग्य वाले ज्ञान चतुर्वेदी नही ) नही पैसा चलता है ।
किसी की मौत...किसी धर्म का कत्ल....सम्वेदनाओ की छीछालेदर किसी का नफ़ा करती हैं तो मौका है भुनाने का इसमें देर कौन करे। यह सफ़ेद पोशो और ऊँचे ओहदों पर बैठे लोगों का धार्मिक वोट धँधा है ।
दद्दा ने हाँथ जोड़े और अपने धर्मनुसार विनय -अनुनय की हे करुणानिधान ! यह अवसरवदिता का खेल कब और कैसे बंद होगा ! कब दिलो का हीमोग्लोबीन शुद्द होगा !
वैसे जिंदगी मे आयात -निर्यात करना ही पड़ता है पर अच्छा होता अगर ये लेना -देना का अर्थ किसी की मौत न बने ।