धर्म के बाजारवाद के चुनावी अनुसंधान के निचोड़ के फलस्वरूप पनपे इस तत्व से प्रभावित दद्दा कबहूं बाहर आते कबहूं बाहर जाते ...कस्बे मे इन्टालरेंश की बात सुन दद्दा ऐसे परेशान हो इधर -उधर घूम रहे थे जैसे उनकर कौनो गाय ढील दिया हुआ हो ।
दद्दा बखूबी समझते थे ये क्या बला है..टहलते -टहलते सोच रहे हैं आखिर ये तो होना था । इंटालरेंश जो की शहर के पढ़े -लिखे लोगन के बीच से छोटे कस्बों और गाँव तक आ पहुँचा है । किसी प्रोजेक्ट प्रोडक्ट के मानिंद है ।
जाने क्यों ये कुछ -कुछ दिनों मे लौट -पौट कर आ खड़ा होता है । ऐसे जैसे उधारी ली हो किसी ने ।
हालाँकि शहर ,कस्बों और गाँव मे ऐसे हालात नही दिखते जैसा टी वी और पेपर मे दिखाया जाता है ।
वेसे है तो गम्भीर मुद्दा पर आजकल बात -बात पर लोग हँसी मजाक मे इसका नाम लेना नही भूलते । एक घर मे कितने तरह के लोग रहते हैं उनके बीच उठापटक होते रहना सभी सदस्यों के मानसिक रूप से स्वस्थ्य होने की निशानी है । फ़िर एैसी बातो पर इतना हल्ला बोल क्यों ?
चोर ,डकैत ,बलात्कारी और अन्य समाजिक दोष कम हैं जो इस बला करिया भूत की लंगोटी पकड़कार खिचाई की जा रही है । ज्यों ही किसी प्रदेश का चुनाव आता है ये चीन के ड्रेकुला की भाँति मुँह फाड़ कर फड़ -फ़ंडाने लगता है ।
आरोप -प्रत्यारोप के दौर मे कम से कम जनता को समझना चाहिये के उसे क्या परोसा जा रहा है ।मुझे इस मुद्दबे पर निदा साहब का एक शेर याद आता है-
""बदला ना अपने-आप को , जो थे वही रहे , मिलते रहे सभी से मगर अज़नबी रहे ।""
ये दौर ए इन्टालरेंश बहुतों के लिये मौका ए गँगा मे हाँथ धोने जैसा भी रहा । क्या लेखक और बुद्दजीव.. इन जीवों को क्या इस बहाने ख्याति की ज़रूरत थी ? या वह खुद भी किसी भेड़ -चाल की बारात मे मिल बिलबिला गये ।
कलम भाँजने से ज्यादा पुरस्कार वापसी हुई । भौं तान सिर्फ दिमाग़ की जालसाजी से बचते तो अच्छा होता । आइकन बन बखिया उधेड़ना कहाँ का जायजपना रहा । हम सही -सही बताये दे रहे हैं कभी -कभी टाँग खींचते रहने से भी बात लम्बी हो जाती है ।
हमारी भारतीय राजनीति और राजनीतिज्ञ ऊसर हो चले हैं । इनकी हरयाली वोट देख कर ही आती है और इसी मे ये तोड़ -भांज कर तीन दो पाँच खेलते हैं ।
पर दद्दा और दद्दा जैसे देश के लोग जानते हैं भारत मे ये फैलाया गया रोग झूठ है । ये बेमियादी बुखार है जो तड़ीपार कर चुका है इसकी सीमा रेखा यही ख़त्म हो जाती है । हालाँकि इसको जड़ से ख़त्म कर पाना बेहद ही मुश्किल है पर नामुमकिन नही ।
यह समय उदारीकरण का है यहाँ हर बात की कीमत तय होती है फ़िर वह धर्म हो , व्यक्ति हो , सम्वेदना हो ! आज ज्ञान (व्यंग्य वाले ज्ञान चतुर्वेदी नही ) नही पैसा चलता है ।
किसी की मौत...किसी धर्म का कत्ल....सम्वेदनाओ की छीछालेदर किसी का नफ़ा करती हैं तो मौका है भुनाने का इसमें देर कौन करे। यह सफ़ेद पोशो और ऊँचे ओहदों पर बैठे लोगों का धार्मिक वोट धँधा है ।
दद्दा ने हाँथ जोड़े और अपने धर्मनुसार विनय -अनुनय की हे करुणानिधान ! यह अवसरवदिता का खेल कब और कैसे बंद होगा ! कब दिलो का हीमोग्लोबीन शुद्द होगा !
वैसे जिंदगी मे आयात -निर्यात करना ही पड़ता है पर अच्छा होता अगर ये लेना -देना का अर्थ किसी की मौत न बने ।
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