चलो ना लपक-झटक लाये खुशियाँ
मीज कर अपनी अंखियॊं
कोई ख्वाब पुराना रह ना जाये
कोई शाम सुहानी फ़िर आये
चलो न खेले फ़िर गुड्डे-गुड़िया
करे न फ़िर मीठी-मीठी बतिया
घरो से अपने खाना लेकर
आना बोलती थी तब सखियाँ
होती ऐसे गुड्डे -गुड़िया की शादी
रोटी ही होती थी लड्डू और भजिया
दूर देश से बाबुल की आती थी पतियाँ
दिन-रात सूने याद बहुत आती है बिटिया
इंद्रधनुष सी होती थी बाते
खुशी बिखरती थी कलियाँ-कलियाँ
अम्मा कहतीं थोड़ा ठहर कर चल ,
धीरे बोल ,धीरे हँस नही तो क्या कहेगी दुनिया
दुनिया का ही डर दिखाया
मेरा मन कोई समझ न पाया
समझ रखा है माचिस की डिबिया
उड़ने दो न खुले गगन मे
लूट लाने दो खुशियाँ
रहने दो इंसान मुझे
नही बनाओ तुम बिटिया-विटिया
चलो सखी देखें दुनिया
चलो ना लपक-झटक लाये खुशियाँ ।शशि पाण्डेय ।
पेशा पढ़ाना ..... लिखना शौक और ज़रूरत है ।खुल्ला पत्रकारिता ,सामाजिक ऐब और कलम !!😊😊
5/25/2016
मेरी खुशियाँ (कविता )
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