5/09/2016

ये कैसा व्यंग्य??

व्यंग्य में गाली
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"व्यंग्य" नाम सुनते ही मन में गम्भीरता भरा चुटीला पन लिये कोई भाव जो  बिना किसी विरोध के हर वो बात कहने का एकल औजार होता है जो अन्य कहीं नहीं। कहने वाले कहते हैं या यूँ कहें कि कुछ विद्वानों का मानना है व्यंग्य का भी सौन्दर्य होता है। शब्द की तीन शक्तियाँ अभिधा,लक्षणा,व्यंजना होती हैं जैसा हम सबने पढा और जानते हैं।हर एक शब्द का दायरा, गरिमा, ,अस्तित्व और अर्थपूर्ण होता है। प्रत्येक शब्द में इतनी क्षमता होती है कि वह मानव के मनोभावों के उदगारों को भली- भांति अभिव्यक्त कर दूसरों तक निर्यात कर सके। फिर बात किसी  विधा विशेष की हो तो कहना ही क्या ....आपके पास शब्द भंडार है तो दाग़ते रहिये मिसाइल कोई आपका बाल भी बांका न कर पायेगा।
                  व्यंग्य में शब्द बाणों और व्यंग्य सौंदर्य का होना उतना ही जरूरी है जितना कि कविताओं में तुकबंदी , लय और अंलकारो का होना ।पर शायद इन सब तत्वों के होने के बावजूद भी एक कविता अच्छी कविता व एक व्यंग्य अच्छा व्यंग्य न कहलाये व पाठकों की रोचकता और प्रसिद्धि न मिले तो  इसके लिए क्या करना चाहिए ?? इसके लिए मैंने  कई नामी लेखकों को पढा, जाना व समझा ।कुछ बड़े लोगों ने अपनी रचनाओं मे गालियों का जोरदार प्रयोग किया और प्रसिद्धि भी पायी।
                   परसाई जी,श्री लाल शुक्ल जी की रागदरबारी और ज्ञान जी के उपन्यासों में गालियों के प्रयोग को लेकर मेरे दिमाग में खयाल आता है.......
   हम गाली कब देते हैं जब हमारी भाषा अशक्य हो जाती है???
 तो क्या  साहित्य में गालियाँ बर्जित नहीं हैं ? तो क्या हम युवा लोगो को या उनके बाद की पीढ़ियों को गालियों को "व्यंग्य साहित्य के सौन्दर्य" के रुप में देखना चाहिए ?
हम हाथापाई तब करते हैं जब गालिया भी असमर्थ हो जाती है।तब क्या हमारी भाषा,हमारी भावाभिव्यक्ति इतनी लाचार हो गयी हैंकि हम्म गालीगलौज पर उतर आये?
अगर साहित्य के महारथी गाली की अर्थबत्ता को इतना आवश्यक समझते हैं तो कल श्रृंगार को अभिव्यक्ति देनेके लिए जाने किस स्तर तक उतरआयेंगे ।
                    इस लिहाज से संगीत की दुनिया में भी मीका और हनी सिंह कतई गलत नहीं ।क्योंकि लोगों द्वारा वो भी पसंद किये गये इन दोनों को भी एक - एक पदम श्री मिलना चाहिए।क्या कहते हैं आप सब?  और साथ में सन्नी लियोनी को भी जिनका नाम लेना मैं भूल गयी थी। आपका बाज़ारवाद सफल तो आप सफल दुनिया जाये तेल लेने ।आप साहित्य में किस स्तर की भाषा का प्रयोग करें या कर चुके हैं, यह सब आपके प्रसिद्धि के ग्राफ तय करेंगे।  क्या फिल्मों को कटेगरी देने वाली संस्था के जैसे साहित्य में भी सेंसर बनना चाहिए?? या मात्र खुला बाजार जैसे "खाला का घर"   जैसा सिस्टम ही मात्र  रहेगा।  जो चाहे लिखे ,जो चाहे छपवायें बस जरूरत पड़ने पर एक दूसरे की पीठ सहला-सहला वाह - वाही बटोरिये । क्या ऐसे   साहित्य और ऐसे  साहित्यकार सही हैं ।  क्या अभिव्यक्ति की लक्ष्मण रेखा हम महिला लेखिकाओं को ही खींचणींपड़ेगी !शशि पाण्डेय।

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