पर्यावरण का नाम आते ही हमारे दिल दिमाग में नदी,पेड़- पौधे,पहाड़ घूमने लगते हैं।शायद हमारे प्रकृति प्रेम का संकेत है। 5 जून को मनाये जाने वाले पर्यावरण दिवस को हर वर्ष धूम- धाम और जोर -शोर से मनाया जाता है।
पर्यावरण रक्षा के लिये 1986 में एक अधिनियम बनाया गया। यह एक व्यापक विधान है इसकी रूप रेखा केन्द्रीय सरकार के विभिन्न केन्द्रीय और राज्य प्राधिकरणों के क्रियाकलापों के समन्वयन के लिए तैयार किया गया है जिनकी स्थापना पिछले कानूनों के तहत की गई है जैसाकि जल अधिनियम और वायु अधिनियम। मानव पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने एवं पेड़-पौधे और सम्पत्ति का छोड़कर मानव जाति को आपदा से बचाने के लिए ईपीए पारित किया गया, यह केन्द्र सरकार का पर्यावरणीय गुणवत्ता की रक्षा करने और सुधारने, सभी स्रोतों से प्रदूषण नियंत्रण का नियंत्रण और कम करने और पर्यावरणीय आधार पर किसी औद्योगिक सुविधा की स्थापना करना/संचालन करना निषेध या प्रतिबंधित करने का अधिकार देता है।
पर्यावरण प्रदूषण पर लगाम नहीं लगायी तो प्रदूषण के कुछ दूरगामी दुष्प्रभाव हैं , जो अतीव घातक हैं , जैसे आणविक विस्फोटों से रेडियोधर्मिता का आनुवांशिक प्रभाव , वायुमण्डल का तापमान बढ़ना , ओजोन परत की हानि , भूक्षरण आदि ऐसे घातक दुष्प्रभाव हैं ।प्रत्यक्ष दुष्प्रभाव के रूप में जल , वायु तथा परिवेश का दूषित होना एवं वनस्पतियों का विनष्ट होना , मानव का अनेक नये रोगों से आक्रान्त होना आदि देखे जा रहे हैं । बड़े कारखानों से विषैला अपशिष्ट बाहर निकलने से तथा प्लास्टिक आदि के कचरे से प्रदूषण की मात्रा उत्तरोत्तर बढ़ रही है ।
दायित्व हम सबका या सरकार का?
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मेरा मानना है अगर सभी पर्यावरण की चिंता करने लग जाये अपने - अपने दायित्वों का निर्वाह करने लगे तो तो पर्यावरण दिवस मनाने की जरूरत नहीं पड़ती। दिवस तो हम उन चीज़ों का मनाते हैं जिनको हमें बचाने की जरूरत होती है।मतलब साफ है पर्यावरण खतरे में है और हम उसे बचा रहे हैं ।पर क्या सच में उसे बचा पा रहे हैं? यह मात्र प्रश्न चिन्ह नहीं चिन्ता का विषय है।कोई कार्य जो कि हर मनुष्य की जिन्दगी से जुड़ा है उसे बचाने के लिए हर मानव जाति को उतना ही तत्पर होना होगा जितनी की हमारी सरकारी व गैरसरकारी संस्थाएं।यह मात्र सरकारी काम नहीं ।स्वच्छ वायु ,जल और वातावरण सबे जीवन के लिए अनिवार्य कारक हैं।इनके बिना जीवन सम्भव नहीं ।इसके लिए सिर्फ सरकारों पर निर्भर रहना सही नहीं ,बल्कि प्रत्येक नागरिक का ये अधिकार और कर्तव्य है कि पर्यावरण हिफाजत में वो अपना योगदान दें।
नदियाँ सूख रही हैं ,पहाड़ उजड रहे हैं ,पहाड़ों का हृदय पर्यावरण की क्षति से धधक उठा है ,उत्तराखंड में विनाशकारी प्रलय जाने कितनी जिन्दगियाँ लील गया !! देश के जाने कितने हिस्से "लातूर"बन सूखे के बेमियादी दर्द से कराह रहे हैं । गांव के गांव उजड गये ,जानवर बेमौत तड़प -तड़प मार गये और हम अभी भी चेते नहीं। हमे और हिस्सों को लातूर बनने से बचाना होगा। पर्यावरण से बेवफाई का नतीजा किसानों ने अपनी जान गवा कर चुकाना पड़ा। क्या यह दोष मात्र सरकारों का है ?हम सब को हर बात के लिये सरकार को जिम्मेदार ठहरा कर पल्ला झाड़ उठ खड़े होते हैं । हम ये दोषारोपण का खेल करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब सांस लेने के भी पैसे देने होंगे। हमे एक साथ उठ खड़े होना है अपने गाँव,शहर, देश,विदेश ,पृथ्वी को बचाने के लिए, इससे पहले की पर्यावरण सुर्सा बन हम सबको लील ले।
पर्यावरण रक्षा के लिये 1986 में एक अधिनियम बनाया गया। यह एक व्यापक विधान है इसकी रूप रेखा केन्द्रीय सरकार के विभिन्न केन्द्रीय और राज्य प्राधिकरणों के क्रियाकलापों के समन्वयन के लिए तैयार किया गया है जिनकी स्थापना पिछले कानूनों के तहत की गई है जैसाकि जल अधिनियम और वायु अधिनियम। मानव पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने एवं पेड़-पौधे और सम्पत्ति का छोड़कर मानव जाति को आपदा से बचाने के लिए ईपीए पारित किया गया, यह केन्द्र सरकार का पर्यावरणीय गुणवत्ता की रक्षा करने और सुधारने, सभी स्रोतों से प्रदूषण नियंत्रण का नियंत्रण और कम करने और पर्यावरणीय आधार पर किसी औद्योगिक सुविधा की स्थापना करना/संचालन करना निषेध या प्रतिबंधित करने का अधिकार देता है।
पर्यावरण प्रदूषण पर लगाम नहीं लगायी तो प्रदूषण के कुछ दूरगामी दुष्प्रभाव हैं , जो अतीव घातक हैं , जैसे आणविक विस्फोटों से रेडियोधर्मिता का आनुवांशिक प्रभाव , वायुमण्डल का तापमान बढ़ना , ओजोन परत की हानि , भूक्षरण आदि ऐसे घातक दुष्प्रभाव हैं ।प्रत्यक्ष दुष्प्रभाव के रूप में जल , वायु तथा परिवेश का दूषित होना एवं वनस्पतियों का विनष्ट होना , मानव का अनेक नये रोगों से आक्रान्त होना आदि देखे जा रहे हैं । बड़े कारखानों से विषैला अपशिष्ट बाहर निकलने से तथा प्लास्टिक आदि के कचरे से प्रदूषण की मात्रा उत्तरोत्तर बढ़ रही है ।
दायित्व हम सबका या सरकार का?
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मेरा मानना है अगर सभी पर्यावरण की चिंता करने लग जाये अपने - अपने दायित्वों का निर्वाह करने लगे तो तो पर्यावरण दिवस मनाने की जरूरत नहीं पड़ती। दिवस तो हम उन चीज़ों का मनाते हैं जिनको हमें बचाने की जरूरत होती है।मतलब साफ है पर्यावरण खतरे में है और हम उसे बचा रहे हैं ।पर क्या सच में उसे बचा पा रहे हैं? यह मात्र प्रश्न चिन्ह नहीं चिन्ता का विषय है।कोई कार्य जो कि हर मनुष्य की जिन्दगी से जुड़ा है उसे बचाने के लिए हर मानव जाति को उतना ही तत्पर होना होगा जितनी की हमारी सरकारी व गैरसरकारी संस्थाएं।यह मात्र सरकारी काम नहीं ।स्वच्छ वायु ,जल और वातावरण सबे जीवन के लिए अनिवार्य कारक हैं।इनके बिना जीवन सम्भव नहीं ।इसके लिए सिर्फ सरकारों पर निर्भर रहना सही नहीं ,बल्कि प्रत्येक नागरिक का ये अधिकार और कर्तव्य है कि पर्यावरण हिफाजत में वो अपना योगदान दें।
नदियाँ सूख रही हैं ,पहाड़ उजड रहे हैं ,पहाड़ों का हृदय पर्यावरण की क्षति से धधक उठा है ,उत्तराखंड में विनाशकारी प्रलय जाने कितनी जिन्दगियाँ लील गया !! देश के जाने कितने हिस्से "लातूर"बन सूखे के बेमियादी दर्द से कराह रहे हैं । गांव के गांव उजड गये ,जानवर बेमौत तड़प -तड़प मार गये और हम अभी भी चेते नहीं। हमे और हिस्सों को लातूर बनने से बचाना होगा। पर्यावरण से बेवफाई का नतीजा किसानों ने अपनी जान गवा कर चुकाना पड़ा। क्या यह दोष मात्र सरकारों का है ?हम सब को हर बात के लिये सरकार को जिम्मेदार ठहरा कर पल्ला झाड़ उठ खड़े होते हैं । हम ये दोषारोपण का खेल करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब सांस लेने के भी पैसे देने होंगे। हमे एक साथ उठ खड़े होना है अपने गाँव,शहर, देश,विदेश ,पृथ्वी को बचाने के लिए, इससे पहले की पर्यावरण सुर्सा बन हम सबको लील ले।
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