9/01/2016

तो आप उल्लू क्यों बने !(व्यंग्य लेख )

"तो आप उल्लू क्यों बने ! ये पंच लाइन किसी टी वी  विज्ञापन की हैं । बिज्ञापन मॆ ज़रूर कहा जाता है कि उल्लू न बने पर विज्ञापन बनते ही हैं उल्लू बनाने के लिये। प्रोडक्ट चाहे जैसा हो पर उसकी खूबियां भारतीय परम्परा के दामादों जैसी व  रिश्ते के लिये  लड़की के जैसे हुनर बताये जाते हैं ।

यही नहीँ आज सुबह एक राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित एक बड़ी पत्रिका बढ़ कर भी अचंभे में पड़ गयी जिसमे घोषणा की गयी थी कि",उसका अगला अंक विज्ञापन विशेषांक होगा ! पहले पत्रों में खबर होती थी राष्ट्रिय अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर विश्लेषण युक्त लेख होते थे कहानी कविताये भी होती थी अब सारा ध्यान विज्ञापन पर होता है विज्ञापन भी कैसे कैसे।

"घने मुलायम काले बाल वैस्मौल ने किया कमाल" फ़िर भी गंजे लोगों कॊ दुनिया बंजर की बंजर । डिश टी वी का प्रचार करते शाहरुख़ खान..."इसको लगा डाला तो लाईफ झींगा ला ला ला " साला लाईफ तो झींगा ला ला न हुई ऊपर से रिचार्ज और ऑफर के  झमेलो से जिन्दगी हिल ला ला ज़रूर हो गई है ।

कहते हैं देर आये ,दुरस्त आये....पर यहाँ तो देर से आने के बाद भी दुरस्ती नही हो पाती...लोग कितना भी चाणक्य बने लेकिन विज्ञापन के फेर मॆ अकबकिया जाते हैं । आज़ हर एक बात नवरत्नी  दिखावे की कसौटी पर कस कर परोसी जा रही है । बल्कि आज़ ही नहीँ दिखावा तो आदिकाल से प्रचलित है । दैव लोक भी इससे अछूता नहीँ । मुनि नारद दैव लोक के चलता -फिरता विज्ञापन थे ।

इतिहास गवाह है हम सब कितने दिखावट -बनावट प्रेमी हैं । कुछ दिनों पहले गैर सरकारी स्कूलो के विज्ञापन हेतु तंज़ चला कि आप सिर्फ ब़च्चा लाये बाकी सब हम देंगे जबकि हकीकत तो अभिभावकों की आंते निकालने की होती है ।

इक्कीसवीं सदी की आधुनिकता मॆ सब के मायने  बदल गये । बाबा जी लीला का दुखद अंत धर्म का विज्ञापन करते -करते हो गया । तो दूजे बड़े -बड़े व्यवसायियों कॊ खून के आँसू रुला रहे हैं जो खुद की आँख का इलाज न कर सके वो लोगों कॊ निरोगी बना रहे हैं। खैर ये भला काम है । हम ऊँगली क्यों करें । आइये एक हाँथ सहयोग का बढ़ाये ।

हमारे सईयां बड़े वाव हैं , कबर मॆ उनके पाँव हैं...एम डी एच मसाले सच -सच ! सच का बावर्ची जाने लेकिन बुढ़ऊ कौनो लोक लुभावक छोरे से कम न दिखते हैं । किसी कॊ सफ़ेद कपड़ों मॆ देख मेरा मुँह अनायास ही कहने कॊ बेताब हो जाता है ए बी सी तुम इन सफेद कपड़ों मॆ बिल्कुल बैंकर लगती हो हालाँकि बैंकर बनने के लिये काफ़ी मेहनत और लगन के साथ पढाई कर प्रतियोगी परीक्षाओ कॊ पास करना होता है पर विज्ञापन मॆ नेहा नाम की लड़की "रिन डिटर्जेन्ट" की बदौलत बैंकर् बन जाती है ।

अभी भी आप सोच रहे हैं तो आप मत सोचिये क्योंकि हम दस हज़ार की फलानी चीज़ आपको   सिर्फ पाँच हज़ार मॆ दे रहे हैं लेकिन याद रहे आप उल्लू न बने हालाँकि हम अपना उल्लू सीधा कर आपको उल्लू ही बना रहे हैं । उफ़्फ़ जल्दी करें ऑफर सीमित है । इसके बाद तो हमारे दिमाग़ के सोचन  क्षमता भी उल्लूवा जाती है । जो दिखता वो बिकता है  बाजारवाद के इस सिद्दांत ने हलकान कर छोड़ा है।

और उल्लू कइसे -कइसे न बनियेगा ,  मिनटों मॆ आप मोटे से पतले कैसे हों ये आप न सोचे ! वो जो कहते जायें फॉलो करते जाईये  । घबराइयेगा नहीँ देखन मॆ तौ गुड़ लगे ,मिलत फल ढ़ेला । ज़माने से हम उल्लू बन रहे हैं बदला है तो सिर्फ़ प्रोडक्ट कॊ परोसने का तरीका...आपको ज़हर भी समुद्र मंथन अमृत बना पेश किया जा रहा है । क्या सटीक पंक्तियाँ इस संदर्भ में दुरस्त बैठती हैं....

           चारो तरफ़ धुआँ है 
           पूरी बस्ती में केवल एक कुआँ है 
           राजा राजा , प्रजा प्रजा है 
           तीन पीढियों का कर्ज़ा है 
           कन्धे बदले वही जुआ है ॥

चलिये आगे बढ़ते हैं "मणप्पुरम गोल्ड अब लाइफ बनाये आसान " हम तो  रास्तों मॆ आते -जाते हुये गढ्ढो कॊ देख सोच मॆ पड़ जाते ,जीवन तो त्रस्त है इन गढ्ढो से इसमे  मॆ गोल्ड  लाईफ कइसे आसान कर देगा । फ़िर हम सोचे शायद गढ्ढो की बात न कही हो घर पर ही कुछ सुविधाएँ उपलब्ध करा हमारी लाइफ आसान बनायी जायेगी पर अफ़सोस ऐसा हमारे खुशफ़हमी का चरम साबित हुआ । ज़्यादा क्या कहा जाये..

       विज्ञापन से हुई ज़िन्दगी खोया अपनापन 
       फटे जेब में जैसे कोई काग़ज़ तुडा -मुडा ॥

© शशि पाण्डेय ।
poonam109@gmail.com
Shashiipandey.blogspot.com

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