9/10/2016

अदरक क्या जाने बंदर का स्वाद (व्यंग्य लेख )

अदरक क्या जाने बंदर का स्वाद 
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जी हाँ अदरक क्या जाने बंदर का स्वाद । वैसे तो ये कहावत उल्टी लिखी है मैने । जैसा की आप सब यह मुहावरा जानते ही हैं। अदरक जिसका स्वाद  बंदर सदियों से लेकर आज़ तक नहीं जान पाया है । पर क्या अदरक इतनी गई गुजरी है , जो पल भर मे पलटी मारने वाले बंदर के मुँह कॊ स्वाद दिलाये ।

अरे,! हम क्या आये दिन बन्दर- बन्दर कहते रहते हैं क्या कभी किसी ने कभी अदरक से भी पूछा है बन्दर के बारे में उसकी क्या राय है । मस्तिष्क का विचार है  किसी को भी किसी से ,बड़ी आसानी से कमतर साबित कर सकते हैं ।

बंदर होना व्यति नहीं एक प्रवृति है ,जबकि अदरक होना एक गुण । फ़िर गुण को प्रवृत्ति से स्वाद  परखाने क्या ज़रूरत । अदरक कॊ अदरक होना ही काफ़ी । जो  गुण के रहस्यानुभूति से वंचित वह असमाजिक ।

कभी - कभी मुहावरों को उलट देना भी बेहतर लगने लगता है । जहां धर्म संकट समझ में न आये वहां संकट का धर्म बेहतर होता है । जो सर्वहित कारी है वह स्वयं मे सम्पन्न और पूर्ण है । "रह -रह उठता जग जीवन मे रावण जय - भय" व्यक्तिगत नीतियों के लिये गुण को गुलाम क्यों बनाना।

अन्ना के हाँथो से फिसली अदरक दिल्ली की कुर्सी तक जा पहुँची और अन्ना बेस्वाद हो गाँव का रुख कर गये । दिल्ली की कुर्सी पकड़ते ही दिल्ली सरकार अदरक खोजने के लिये  "बड़ी सरकार" की आँते मथने लगी । अन्ना  जन्तर - मन्तर कर अदरक नज़रबँटा दिल्ली की जनता को सौंप गये....देखा देखी रामलीला मैदान मे अदरक ढूँढ़ने आये बाबा रामलीला का जोकर बन आधी रात बिन अदरक निकल लिये । बाद मे अदरक खोजने हेतु....तेल ,साबुन ,आटा ,दाल -चावल , गाय मूत्र - गोबर  आदि बेचने लगे ।

यह बंदर , बड़ी सरकार के अदरक पर नज़रें  गडाये रहता है ।  कुछ बन्दर देश मे अदरक खोज रहें है तो वहीं  "बड़ी सरकार" अदरक का अखण्ड विकास आनँद खोजने हमेशा विदेश जाये रहते हैं , यह उनकी लीलाओं का सुपर विकास रुप है  । और कुर्सी यहाँ खाली पड़े बिन अदरक कुल्हाटियां खाती रहती है ।

अब तक देश की आवाम बंदर बन रह गई है बहुत सी ऐसी जीवन उपयोगी अदरके हैं जिसका स्वाद चखना उसके लिये बेहद ज़रूरी था लेकिन जो हो न सका । हमारे देश मे कहावतें , कहावतें ही नहीं जीवन तंत्र से निकली भाव बोध स्वरूप अनुभव के अर्थ हैं । हे मेरे देश के अन्न देवताओं तुम सरकारों की राजनीतिक पीड़ा हो....तुमको उन्होने खुद की राजनीति की पीड़ा मे ढूंढा है...और अब वह तुम मे पीड़ा ढूंढते हैं । वो तुमको बन्दर और खुद को अदरक समझते हैं । बात पीड़ा की हो तो महादेवी वर्मा जी ज़्यादा कोई सम्वेदनशील नहीं...

           क्या अमरों का लोक मिलेगा 
           तेरी  करुणा  का   उपहार 
           रहने  दो  हे  देव मुझे ! अरे 
           यह मेरा  मिटने का अधिकार

बड़ी सरकार की विकास शक्ति -भक्ति देख "नापाक" बंदर बिलबिलाया रहता है...नापाक बिलबिला कर अदरक के वास्ते... कश्मीर मे धान रोपने का असफल प्रयास करता रहता है। उन नापाक अदरकियो को भारतीय सेना अपने हिसाब से खूब अदरक रस भी  चखाती है ।

कुल मिलाकर बन्दर और अदरक हमारी सांस्कृतिक परिवेश मे ही रचा बसा है । हे  निर्णयहीन खानदानी   बन्दर पुत्रों तुम अदरक से दूर ही रहो । बंदर के हाँथो बची अदरक ही  भारतीय मानस के  पुनर्जागरण को परिचालित करेगा 

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