9/01/2016

कहो क्या समझे (व्यंग्य कविता)

कहो क्या समझे 
कहीं वह नेता तो नही!

हर रोज़ उठते वह 
ताजे सपनों के साथ 
बासी सपनो कॊ 
रखता ही है कौन याद 
कहो क्या समझे....
कहीं वह नेता तो नहीँ

कपड़ों की क्रीज 
रहती हमेशा तनी -तनी 
कुतुब मीनार से ऊँची ईमेज 
हमेशा रहती बनी- बनी 
कहो क्या समझे....
कहीं वह नेता तो नहीँ

सम्वेदनाओ की चलते 
वह गहरी चाल 
देश चलाने कॊ बतलाते 
वह पैंतरे चार 
कहो क्या समझे...
कहीं वह नेता तो नहीँ

लोकतंत्र कॊ करते लज्जित 
करते खुद का महिमा मंडित 
मुँह बगार देते बयान 
मर्यादा कॊ करते खंडित 
कहो क्या समझे 
कहीं वह नेता तो नहीँ

काले धन के ये पनसुखते 
पानी सोख दलदल बनते 
देख -देख शिकार पकड़ते 
सच्चाई सुन हैं ये अकड़ते 
कहो क्या समझे 
कहीं वह नेता तो नहीँ

©® शशि पाण्डेय ।
ShshiiPandey.blogspot.com 

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