बीमार मानसिकता ।(लेख समाज स्तम्भ हेतु ) शशि पाण्डेय
जब भी बलात्कार की घटनाएँ घटती हैं घटनाएं हम सबको झकझोर कर रख देती हैं । हम आज़ आधुनिक समाज की दौड़ मे बेतहाशा भाग रहे हैं । पर लाख टके का सवाल कि क्या हम और हमारा पुरूष समुदाय आधुनिक हो पाये हैं ? लाखों -लाखों सवाल हम सबके ज़ेहन मे उठने लगते हैं , या उठते होंगे क्या हम सब जैसा समाज चाहते हैं यह बिल्कुल वैसा ही है या उससे अलग ! कानून बनने के बावजूद पूरे देश में बलात्कार की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। आये दिन ऐसी घटनाएं अखबारों की हेड लाइन बनती हैं ।
अमूमन ऐसी घटनाओं के बाद सरकारें व सत्तारुढ़ राजनीतिक पार्टी इन पर पर्दा डालने में जुट जाती हैं और विपक्ष और दूसरे सामाजिक संगठन धरने और प्रदर्शनों में लग जाते हैं । लेकिन घटना के मूल कारण की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। अथवा ध्यान दिया नहीँ जाता ।
आखिर ऐसे कुकृत्यों की वजहें क्या हैं ? क्यों आधुनिकता की ओर बढ़ता, पढ़े - लिखे समाज मे महिलाओं के प्रति ऐसी दरिंदगी घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है । हम गंदी मानसिकता या विकृत मानसिकता कह कर मोमबत्तियाँ जला कर चुप नही बैठ सकते । समाज कॊ समझना होगा इसके पीछे क्या वजहें हैं और उन वजहों का हल क्या है !
आंकड़े बताते हैं देश मॆ प्रदितिन औसतन 92 महिलाओं का बलात्कार होता है । नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में साल 2012 में रेप के 24,923 दर्ज हुए, जो 2013 में बढ़कर 33,707 हो गए। 2013 में15,556।
और अब ये आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं । अगर हम यह मान लें कि इसके पीछे की मुख्य वज़ह अशिक्षा और बेरोज़गारी है तो यह भी आरोपियों कॊ देखते हुये गलत साबित होता है। कितने ही आरोपी ऐसे हैं जो पढ़े लिखे शिक्षित होते हुये भी ऐसे कामों मॆ शामिल पाये गये हैं । ऐसे आरोपियों के लिये महिलाएँ मनोरँजन से ज्यादा कुछ नहीँ ।
समाज मॆ ख़त्म होते संस्कार हमें किस दिशा की ओर ले जा रहे हैं । बढ़ते अपराधों और नारी उत्पीड़न की घटनाओं से यह साबित होता है कि नैतिक मूल्यों का अब कोई मोल नहीं रहा है । सिनेमा जगत व विज्ञापन की दुनिया में बेवजह महिलाओं कॊ वस्तु रुप मॆ परोसा जाना परिवार तथा समाज कॊ संक्रमित कर बीमार करने का काम कर रहा है । आज़ भी महिलाएँ सताई जा रही हैं । उनको मानसिक, शारीरिक रुप से प्रताडित किया जा रहा है ।
पितृ सत्तात्मक समाज मॆ महिलाओं के प्रति हिंसा तो उनके गर्भ काल से ही शुरू हो जाती है । लड़कियों कॊ बोझ समझना यह मानसिकता भी हिंसा का हिस्सा है ।
विचार करने वाली बात है क्या बलात्कार प्राकृतिक जगत में पाई जाने वाली प्रवृत्ति है ? प्रकृति में बलात्कार नहीं हो सकता और सामूहिक बलात्कार तो बिल्कुल नहीं।कानून बनने के बावजूद पूरे देश में बलात्कार की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं. रोजाना ऐसी घटनाएं अखबारों के किसी न किसी कोने में नजर आ जाती हैं.
इस तरह अपने अस्तित्व और पहचान के जटिल प्रश्नों से उलझने वाली प्राणीजगत की श्रेष्ठतम मानव जाति इस प्राकृतिक जगत की सबसे अप्राकृतिक प्रवृत्ति की शिकार है और इस प्रवृत्ति को पाशविक कहना पशुओं की प्राकृतिकता का अपमान होगा। इस बारे में हम इशारा भी नहीं करना चाहते हैं. यही समाज मॆ बलात्कारी मानसिकता का हिस्सा बन जाता है। भौतिकता या शारीरिक आकर्षण का विलासी लक्ष्य दरिंदगी और हवस कॊ अंजाम देता है ।
इस तरह बलात्कार मानव सभ्यता का विकट संकट है। अब तर्क दिया जा सकता है कि बलात्कार तो कुछ ही पुरुषों द्वारा किए जाते हैं, इसके लिए क्या संपूर्ण पुरुष समाज व्यवस्था को पशुओं से बदतर माना जाना चाहिए ? बलात्कार और दूसरे अपराधों में बुनियादी फर्क है ? ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए हमारे पितृसत्तात्मक समाज की मानसिकता में बदलाव के लिए ठोस कदम उठाने जरूरी है. लेकिन इस मामले में कानून बेबस है. यही वजह है कि सरकार ने अब तक जो कानून बनाये थे वह भी दंतविहीन बन कर सरकारी दस्तावेजों तक सिमट कर रह गया है
समाज कॊ गंदगी परोसने वाले कब समझेंगे ! जब ऐसे मुद्दे उठते हैं तो तमाम कुतर्क स्वरूप लम्बी बहस छिड़ जाती है और आधुनिकता ,सामजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि नदी के दो छोरों की तरह भिन्न है. बावजूद इसके अगर इनकी जुबान से मिलते-जुलते शब्द निकल रहे हैं तो इसके लिए देश की वह पुरुष मानसिकता ही जिम्मेदार है जिसमें आज भी महिला को भोग्या समझा जाता है.
इस पूरे मामले कॊ मनोवैज्ञानिक तरीक़े से समझने और सुलझाने की तरफ़ क़दम बढ़ाने की ज़रूरत है । दूसरी बात महिलाओ कॊ भी अपने आँख ,कान खोल सतर्क रहना होगा। मीठी -मीठी बातों के पीछे छिपे छलावे कॊ पहचानना होगा । जब तक महिलाएँ सम्वेदनाओ मॆ बह कर काम करेंगी तब तक धोखा और कुकृत्य संकट के बादलो का खतरा उन पर मंडराता रहेगा । ऐसे भयानक दौर मॆ महिलाओ कॊ स्वयं कॊ बहुत सुरक्षित रख कर चलना होगा ।
शशि पाण्डेय ।
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