ओये सर जी मारे साथ सिद्द्धे पेश आओ नहीँ ते एक मिन्ट मै तबादला हो जावेगा ! जय हो डॉo सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जी । जय हो सारे हमारे गुरुओं की । हमारी जय हो न हो क्योंकि हम भी गुरु हैं लेकिन आधुनिक समाज के बच्चो के।
आज़ की "राजी" नीति का एक सुप्रसिद्ध तकिया कलाम थोड़ा फेर बदल के साथ मौजूदा शिक्षक कौम पर क्या खूब फबता है "वो हमें परेशान करते रहे..और हम परेशानी ढोते रहे "
गुरु - शिष्य की लुप्त हो चुकी आदर्श परम्परा अब बहुत कुछ..."चले मुस्सद्दी ऑफिस -ऑफिस" के मुस्सद्दी की तुल्य हो चुकी है। भयावह हास्य की जगह करुणा का विस्तार होने लगता है ।
भयभीत विचलित हुआ इस प्राणी के खमियाजा का असर आधुनिक शिष्यों पर खूब दिखता है । बुद्धिवाद ,विज्ञानवाद सब धराशायी हुये मुँह की खा पड़े हैं । श्रद्धा के विरोधी भाव निर्मम ,निरंकुशता उबाल के साथ उतर बह चली है ।
यह परम्परा अब एकलव्य -द्रोणाचार्य तक सीमित नही ! अब यहाँ जूली और रोमियो भी मिलते हैं । वैसे पहले भी मिलते रहे होंगे पर लोगों कॊ पता नही लगता रहा वज़ह सोशल मीडिया जो नही था । वैसे हर्षौल्लास बना रहे जीवन मे तो सबके लिये अच्छा ही होता है ।
मौजूदा सरकारो के द्वारा उच्च नियम बनाये जाने के साथ -साथ विश्लेषण किये जाने की ज़रूरत है । निष्क्रिय हुये पड़े मनुष्य रूपी इस कौम के मनो कॊ कैसे जगाया जाये । ताज़ा चाय या बाग बकरी चाय पिला तरोताज़ा किया जाये ।
शिक्षकों कॊ यह कैसे सिखाया जाये कि कक्षाए, अगर आदर्श कक्षाओ के मापदंड कॊ पूरा नही करती तो चालीस बच्चो से इतर एक सौ से...एक सौ पैंतीस ,चालीस बच्चे कैसे ढोया जायें शायद इसकी दक्षता के लिये चरवाहों से प्रशिक्षण दिलाना चाहिये ।
पढाने के साथ - साथ खाना बनाने से लेकर खाना परोसने तक के प्रशिक्षण के लिये क्यों न गुरू जी लोगों कॊ होटल मैनेजमेंट का कोर्स कराया जायें...कभी -कभी ये हुनर घरो मे पुरुष वर्ग के गुरु जी लोगों कॊ शांति बहाली मे भी साथ देगा ।
दवाइयां बाँटते गुरू जी...कभी खुद क्या हैं भूल ,उद्दात्त हो सरकारी पैसे बच्चो कॊ बाँटते..अतुलनीय गुरू -शिष्य की परम्परा का निर्वाह करता ये अद्वितीय प्राणी । यह ईश्वरीय आलोक का स्वरूप प्राप्त कभी - कभी मक्कारी के ढर्रे पर भी चल पड़ता है । हालाँकि ऐसी मक्कारियांक करते हुये आलोचक बन खुद का मूल्यांकन ज़रूर करता होगा ।
ऐसी ही एक शिक्षिका जो कि अध्यापन कार्य छोड़ दिनरात बच्चो के बैंक अकाउंट ,आधार कार्ड के कार्य मे जूझीरत रहती है...उसे देख एक दिन मेरे मन मे आया उसको बोलूं..सुनो प्रिये तुम ऐसे बैंक का काम करते हुये , लीन बिल्कुल बैंकर् लगती हो ।
कार्य कोई भी हो, कोई अपना अस्तित्व नही खोना चाहता जबकि यहाँ...देश का भावी भविष्य नियामक का अस्तित्व चूर -चूर चकनाचूर कुयें के मेढ़क भाँति टर्राता रहता है। लेकिन स्कूल सृष्टि मे इस महाशून्य का सफ़रनामा जारी है ।
कुछ गुरूजनीय असाध्यवीणा सन्नाटे के साथ कौशल का निर्बाध स्पंदन करते हुये वीर योद्धा भी साबित होते हैं जिनको देख कई आलसी प्रवृति अस्तित्व गुरुजनों के छाती साँप लोटने जैसी हो जाती है । यह निरीह प्राणी अपने प्रति होते अत्याचार का विरोध करे तो कैसे उसके इस क्रांतिकारी स्वरूप कॊ लफ्फाजी का रंग दे बखिया उधेड़ते तनिक देर न लगती ।
हे समाजिक बोध के दाता, ध्वनि वाहक , वाणीवत्सल ,सुशुमित -शांत बहती रस धारा के परम प्रवाहक गुरु तुम असाधारण हो..तुम कैसे गुरु -शिष्य परम्परा का एकलव्य बन कुशल निर्वाह करो ये तुम्हे गहन चिंतन करना होगा....वरना सब यही कहते फिरेंगे....गुरु से कछु नहिं होत
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