ये मुये और तेल की धार
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तेल के वो दिन दूर हुये जब बेचारा रसोई में कढाइयो तक रहता था । अब तेल के नैसर्गिक काम का नयावतारण हो चुका है । अब यह और कामों में महत्व पूर्ण भूमिका निभाता है और वो भी किसी की जब मसाज़ करनी हो तब या चमचा गिरी ,चाटुकारिता की चिकनी -चुपडी बातें करनी हो तो । हाँ कभी -कभी यह साजिश के तहत लोगों गिराने के काम भी आता है । लेकिन तेल की धार देखनी हो काम धैर्य के साथ लेना होगा ।
यह भाषा का चमत्कार है ।जहाँ हम धार सुनते हैं वहाँ हमें तेल धारा कम तलवार सा पैना पन समझ आता है । यह मुहावरा सांकेतिक अर्थ जिस परिप्रेक्ष्य में कहा जाता है उसका अभिप्राय किसी विशिष्ट और विशिष्ट का उद्देश्य या क्षमता को धैर्य के साथ परखने से होता है ।
वो बोले हमसे गुस्से में मुँह भी फुला लो और ठहाके लगा कर भी दिखाओ। ये दोनों बातें एक साथ हो भी सकती हैं और नहीँ भी । तेल में धार भी हो सकती है और कोमलता भी । यह तेल की मर्जी है किस ओर लुढ़के और लुढ़क कर बह चले ।
राजनीति के गलियारों में यह धार देर से समय के साथ समझ आती है । कौन सी मछली कितने गहरे गोता लगायेगी ये धैर्य के परीक्षण के साथ ही सिद्ध होता है ।यह आधुनिक युग के आधुनिक प्रयोगवाद का युग है । जहाँ राजनीतिक खोखलेपन की सारी चेतनाओ की सौम्य कमीनीपंथी प्रयोग में लाई जाती है ।
उठा -पटक और पटक कर पतलून उतार लतियाना फ़िर लतिया कर भरत मिलाप राजनीति में पुरा पाषाण की परम्परा है । वर्तमान में निर्गुण राजनीति में सगुण राजनीति का स्वर्णयुग है। ये जग ,जमीर ,ज़मीन पर गिरते हैं और नज़रो से गिरते हुये फ़िर ऊचाईयों को चूमने चल पड़ते हैं । ये ,ये न हो गये साला वाष्पीकरण की प्रक्रिया से बड़ी वैज्ञानिक पद्धति बन गये । यह लोकतंत्र के यथार्थ का भीषण संघर्ष है सामयिक सत्ता बौरा कर रह गई हो । निराला की ये पंक्तियाँ बौराई सत्ता पर खूब फिट होती हैं...
महँगाई की बाढ़ बढ़ आई गाँव की छूटी गाढी कमाई
भूखे -नंगे खड़े शरमाये न आये वीर जवाहर लाल ॥
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