क्योंकि !हम सम्वेदनशील हैं ।
सुबह -सुबह का समय सूरज बाबा अपने आगमन की दस्तक दे रहे थे । हम भी औरों की तरह रोज़ी -रोटी के जुगाड़ के लिये तैयार हो रहे थे । तैयार हो घर से निकल लिये । रास्ते किनारे एक साइकिल सवार धीरे -धीरे पैडल मार आराम से चल रहा था शायद वो भी पेट के जुगाड़ मॆ सुबह -सुबह निकल रहा होगा ।
दूसरी तरफ़ से फर्राटा भरती हवा से बातें करती हुई कार आयी और साइकिल सवार कॊ हवा मॆ उछालते हुये...ज़रा देर घायल हुये साइकिल सवार के पास ठहरी और फ़िर लोगों से बचते हुये भारतीय परम्परा अनुसार निकल भागने के सफ़ल प्रयास करता हुआ भाग निकला।
उसके बाद घायल साइकिल सवार के पास लोगों का जमघट शुरू हुआ. कुछ लोग दूर से ही उसे देख सम्वेदना व्यक्त कर रहे थे ,तो कुछ थोड़ा पास जाकर । जिनके हाँथ स्मार्ट फोन थे वो अलग तरीक़े से सम्वेदनशील होने की गवाही दे...खिचैक-खिचैक उस गरीब घायल की तस्वीरें कैद कर रहे थे । मानो वह कोई रियो ओलम्पिक विजेता हो!
उसकी सांसे भी आखिर उसका कितना साथ देतीं...कोई तड़प कर कैसे पल -पल मौत के आगोश मॆ समाता है इस वैज्ञानिक क्रिया का सम्वेदनशील लोगों के द्वारा वीडियो बनाये जाने और फोटो उतारे जाने तक या जीवन लीला समाप्त होने तक ।
सारे फोटो ,वीडियो सोशल मीडिया मॆ उंडेल दिये गये होंगे क्योंकि वे सब दुःखी थे इस घटना से और अत्यंत सम्वेदनशील भी थे । रोज़मर्रा की ज़िंदगी मॆ हम सबके सामने ऐसी छोटी -बड़ी घटनाएँ रोज़ घटती रहती हैं और हम यानि "समाज" जो वर्तमान समय मॆ घोर सम्वेदनाओ से लबरेज़ है ।
सड़क दुर्घटनाओं मॆ दम तोड़ती जिंदगियां और उनकी फोटुये उतारते और वीडियो बनाते हम...उनको देखने के बहाने से उनकी जेबों से गाँधी की तस्वीरों वाले काग़ज़ के टुकडे और मोबाइल खींचते हम ,क्योंकि हम सम्वेदनशील हैं ।
मामला सिर्फ यहीं समवेदित होने तक नहीँ , म़हिलाओं के साथ बढ़ते अत्याचार और सतर्क होते हम । हम सब इतने सतर्क हो चुके हैं कि, कहीं कोई भी किसी की बेटियों ,महिलाओ पर फब्तियां कसता है तो सोच अनदेखा कर किनारे हो लेते हैं कि कौन सा हमारे घर की बात है,क्योंकि हम सम्वेदनाओ कॊ समझते हैं ।
हम और हमारी नई पीढ़ी और भी ज़्यादा सम्वेदनाओ और जोश से भरी है । किसी की मदद के लिये हाँथ बढ़े या नहीँ पर कैंडिल मार्च के लिये हाँथ ज़रूर बढ़ाते हैं । कैंडिल मार्च से ज़्यादा सेल्फी मार्च के लिये सम्वेदनशील जो होते हैं। सेल्फी जिसका हमारे मन -वचन -कर्म के साथ हमारा एग्रीमेंट हो चुका है ।
ट्विटर ,फेसबुक ,ह्वाट्स्प ,ब्लॉग और जाने कौन -कौन सी सोशल दुनिया जहाँ पर हम और हमारे जैसे सम्वेदनशील लोग अपनी सम्वेदनाएँ व्यक्त करने के लिये सारे काम छोड़ देते हैं ।
काश कि भड़ास रूप मॆ निकलती हमारी सम्वेदना सिर्फ़ दिखाऊ ,खोखी सम्वेदना मात्र न होती । दिखाने के दाँत और खाने के और....मॆ दुनिया क्या से क्या हो चली है । ऐसे मॆ जावेद जी की ये लाइनें काफ़ी सटीक बैठती हैं....
इस शहर में जीने के अंदाज़ निराले हैं....
होंठों पर लतीफ़े हैं, आवाज़ में छाले हैं..!
साफ़ -सुथरी छवि परोसते लोग मौका परस्ती से नहीँ चूकते । होटलों मॆ बादशाहत दिखाने के लिये टिप देते सम्वेदनशील लोग रास्तों मॆ गरीबों के हाँथ फैलाए जाने पर जेबों मॆ सिक्कों कॊ ढूँढ़ने मॆ एनर्जी जाया करते हैं । और कई बार सिक्के ढूँढ़ने की भी ज़हमत नहीँ उठाते ।
दुखों और घटनाओं के स्तर अनुसार सम्वेदनाओ के भी स्तर भी होते हैं ,कब ,कितनी,कैसी वाली सम्वेदना व्यक्त करनी है । इतना ही नहीँ कई बार सम्वेदनाएँ राष्ट्रीयता से ऊपर ,राजनीतिज्ञों कॊ समर्पित हो जाति -पांति मॆ बटी होती है । कुछ सम्वेदनाओ के प्रकार पर नज़र.....
1-खेलीय सम्वेदनाएँ
2-राजनीतिक सम्वेदनाएँ
3-जाति -पाति की सम्वेदनाएँ
4-महिलाओ के प्रति सम्वेदनाएँ
5-बच्चो के प्रति सम्वेदनाएँ
6-पडोसी मुल्कों के प्रति सम्वेदनाएँ
7-आपदाओं ,घटनाओं से प्रभावित लोगों के प्रति सम्वेदनाएँ
अगर बात खेलों की हो तो पूरे देश के लोगों की सम्वेदना एक सी होती है ,मतलब जीते तो सब खुश...हारे तो सब गरिययायेँगे और गरिययायेँगे ही नहीँ खानदान ,गर्लफ्रेंड आदि -आदि तक पहुँच जाने मॆ कोई कसर नहीँ छोड़ते ।
बात अगर राजनीति की हो तो सम्वेदनाएँ दलों के हिसाब से व्यक्त होती हैं । कुछ तो इतने पक्के चेले होते हैं कि मारो -मार मॆ उतर आते हैं ।यह राजनीतिक सम्वेदना का स्तर पूरे देश मॆ सबसे ज्यादा दक्षिण भारत मॆ चरम मॆ पाया जाता है । कितने लोग इसके चलते जान गँवा चुके हैं ।
जाति -पाति की बात छिड़ते ही लोग जातीय हो जाते हैं । एक अलग तरीक़े की सम्वेदना...बहने लगती है ।इन सम्वेदनाओ मॆ कोई किसी से दबता नहीँ है । सब सम्वेदनशील हो अपने -अपने कॊ महान बताने मॆ ज़बानी जंग छेड़ देते हैं ज़रूरत महसूस हुइ तो गाली -गलौज ,हाथापाई तक आगे बढ़ जाते हैं । इससे भी आगे भी सम्वेदनाएँ निकली तो बात समुदायों के बीच दंगे तक जा कर निपटती हैं ।
महिलाएँ अहा ! ये नाम आते ही आधा समाज बेचारगी की सम्वेदना के चश्मे से देखना शुरू कर देता है । और इनके साथ कोई घटना घट जाये तब तो सम्वेदनाओ का नज़रिया 6.6 से घट कर 0.1 हो जाता है । जितनी आँखे फाड़ कर देखने मॆ नम होती हैं , उतनी ही नम ,आँख फाड़ घटनाओं कॊ जानने मॆ!ये सम्वेदनाएँ महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के लिये जागे न जागे...अनहोनी होने के बाद तीव्रता से सम्वेदनाएँ प्रेषित होती हैं ।
इसी तरह बच्चो के मामलात मॆ tv ,अखबारों या किसी के मुँह से सुनते हुये हम बेहद सुलझे और दार्शनिक बन बैठते हैं । लेकिन यही बच्चे जब घरो ,दुकानों और दफ्तरों मॆ काम करते मिलते हैं तो हमारी सम्वेदनाएँ होलिका मॆ दहन हो चुकी होती हैं । आखिर हम कब समझेंगे चीजो कॊ । असल मॆ हम इंसान कब बनेंगे ? यह प्रश्न जब तक जहन मॆ टकरायेगा हमारी बाज़ारु हो चुकी सम्वेदनाएँ सिर्फ़ और सिर्फ़ काग़ज़ के फूल साबित हो कर सबको दूर से प्रलोभित करती रहेंगी ।
देश के पडोसी मुल्कों की बात हो उनमे भी बात पाकिस्तान की हो तो हमारी बदले वाली सम्वेदना काम करने लग जाती है और हम जाति ,धर्म ,लिंग भेद से परे हो जाते हैं । प्राकृतिक आपदाओं जैसे वर्षा बाढ़ , अकाल सूखा आदि घटनाओं पर तो कई बार हम देखते ,पढ़ते ,सुनते रो पड़ते हैं । लेकिन लाशों के बदन से जेवरात , जेबों से पैसे निकलना गुरेज नहीँ । आपदाओं मॆ फँसे लोगों से लूट मॆ सुप्त सम्वेदना काम करती है जो सो चुकी होती है ।
सम्वेदनाओ और भी बहुत प्रकार से बाँट कर देखा जा सकता है । आखिर ये हमारी अपनी सम्वेदनाएँ हैं हम जैसे चाहे सुविधानुसार खर्च करें । किसी के बाप का क्या जाता है....ये बाप पे नहीँ जाने का...ऐसी सम्वेदनाएँ मॆ प्रायः ऐसा ही रिएक्शन मिलता है ।
खैर ये सब छोडिये ,अब वो साइकिल सवार जो घायल हो चुका था किसी ने थोड़ी अच्छी वाली सम्वेदना के चलते 100 नम्बर मॆ फोन कर पुलिस कॊ सूचना दे दी...दो थाने वालों की सम्वेदनाएँ आपस मॆ टकरा रही हैं उनका अपना -अपना कहना यह घटना उनके थाने के अन्तर्गत नहीँ आता...घायल मुसाफ़िर का जीवन अभी शेष बचा है या नहीँ ,मालुम नहीँ... सुरक्षित बची हैं तो हमारी कोरी सम्वेदना...क्योंकि !हम सम्वेदनशील हैं ! ©शशि पाण्डेय ।shashiipandey.blogspot.com
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