9/10/2016

परिंदे दो प्यार के ( कविता )

परिंदे दो प्यार के 
जब आपस मॆ लड़ते

जाते हैं भूल याराना 
करते बस अपना - अपना 
तू -तू ,मै -मै दिल करता 
तोड़ते इक दूजे का सपना 
परिंदे दो प्यार के 
जब आपस मॆ लड़ते 

अटूट प्रेम होता खंडित 
होती बस ईर्ष्या सज्जित 
कटघरे मॆ ,तो दूजा जज 
फ़िर होता रिश्ता लज्जित 
परिंदे दो प्यार के 
जब आपस मॆ लड़ते 

देख कभी जो आहें भरते 
उफ़ -उफ़ करते अब न थकते 
जानू ,जान ,जानम , जानेमन 
अब तो बस सपनों मॆ करते 
परिंदे दो प्यार के 
जब आपस मॆ लड़ते 

जाने क्यों करें हैं दईया-दईया 
जब इक दूजे के बने खेवइया 
फ़िर लड़ने बैठे तो 
बन जाते लरकाइयां 
परिंदे दो प्यार के 
जब आपस मॆ लड़ते 

संसार मॆ दो जोडो का सार 
साथी बिन दूजा मझदार 
क्यों फ़िर रखते दरकार 
बाती , दिया बिन बेकार 
परिंदे दो प्यार के 
जब आपस मॆ लड़ते 

©® शशि पाण्डेय ।
ShshiiPandey.blogspot.com 

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